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दुआ पर शेर

उर्दू शायरी का एक कमाल

ये भी है कि इस में बहुत सी ऐसी लफ़्ज़ियात जो ख़ालिस मज़हबी तनाज़ुर से जुड़ी हुई थीं नए रंग और रूप के साथ बरती गई हैं और इस बरताव में उनके साबिक़ा तनाज़ुर की संजीदगी की जगह शगुफ़्तगी, खुलेपन, और ज़रा सी बज़्ला-संजी ने ले ली है। दुआ का लफ़्ज़ भी एक ऐसा ही लफ़्ज़ है। आप इस इन्तिख़ाब में देखेंगे कि किस तरह एक आशिक़ माशूक़ के विसाल की दुआएँ करता है, उस की दुआएँ किस तरह बे-असर हैं। कभी वो इश्क़ से तंग आ कर तर्क-ए-इश्क़ की दुआ करता है लेकिन जब दिल ही न चाहे तो दुआ में असर कहाँ। इस तरह की और बहुत सी पुर-लुत्फ़ सूरतों हमारे इस इन्तिख़ाब में मौजूद हैं।

हया नहीं है ज़माने की आँख में बाक़ी

ख़ुदा करे कि जवानी तिरी रहे बे-दाग़

अल्लामा इक़बाल

दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ

कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए

इफ़्तिख़ार आरिफ़

अभी ज़िंदा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा

मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

मुनव्वर राना

औरों की बुराई को देखूँ वो नज़र दे

हाँ अपनी बुराई को परखने का हुनर दे

खलील तनवीर

जाते हो ख़ुदा-हाफ़िज़ हाँ इतनी गुज़ारिश है

जब याद हम जाएँ मिलने की दुआ करना

जलील मानिकपूरी

मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे

दवा याद रहे और दुआ याद रहे

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल चाहने पर भी

तिरे लिए मिरे दिल से दुआ निकलती है

अहमद फ़राज़

जब भी कश्ती मिरी सैलाब में जाती है

माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में जाती है

मुनव्वर राना

अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आएगा कोई जाएगा

तुम्हें जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो

बशीर बद्र

मुझे ज़िंदगी की दुआ देने वाले

हँसी रही है तिरी सादगी पर

गोपाल मित्तल

दुआ करो कि मैं उस के लिए दुआ हो जाऊँ

वो एक शख़्स जो दिल को दुआ सा लगता है

उबैदुल्लाह अलीम

कोई चारह नहीं दुआ के सिवा

कोई सुनता नहीं ख़ुदा के सिवा

हफ़ीज़ जालंधरी

हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल

दुआ वही है जो दिल से कभी निकलती है

दाग़ देहलवी

माँग लूँ तुझ से तुझी को कि सभी कुछ मिल जाए

सौ सवालों से यही एक सवाल अच्छा है

अमीर मीनाई

आख़िर दुआ करें भी तो किस मुद्दआ के साथ

कैसे ज़मीं की बात कहें आसमाँ से हम

अहमद नदीम क़ासमी

दुआएँ याद करा दी गई थीं बचपन में

सो ज़ख़्म खाते रहे और दुआ दिए गए हम

इफ़्तिख़ार आरिफ़

माँगी थी एक बार दुआ हम ने मौत की

शर्मिंदा आज तक हैं मियाँ ज़िंदगी से हम

अज्ञात

माँगा करेंगे अब से दुआ हिज्र-ए-यार की

आख़िर तो दुश्मनी है असर को दुआ के साथ

मोमिन ख़ाँ मोमिन

दूर रहती हैं सदा उन से बलाएँ साहिल

अपने माँ बाप की जो रोज़ दुआ लेते हैं

मोहम्मद अली साहिल

क्यूँ माँग रहे हो किसी बारिश की दुआएँ

तुम अपने शिकस्ता दर-ओ-दीवार तो देखो

जाज़िब क़ुरैशी

होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क-ए-इश्क़ की

दिल चाहता हो तो ज़बाँ में असर कहाँ

अल्ताफ़ हुसैन हाली

तुम सलामत रहो क़यामत तक

और क़यामत कभी आए 'शाद'

शाद आरफ़ी

जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए

है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए

जाँ निसार अख़्तर

मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत

जो हो सके तो दुआओं को बे-असर कर दे

इफ़्तिख़ार आरिफ़

कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहजे में

अजब तरह की घुटन है हवा के लहजे में

इफ़्तिख़ार आरिफ़

इस लिए चल सका कोई भी ख़ंजर मुझ पर

मेरी शह-रग पे मिरी माँ की दुआ रक्खी थी

नज़ीर बाक़री

मैं ने दिन रात ख़ुदा से ये दुआ माँगी थी

कोई आहट हो दर पर मिरे जब तू आए

बशीर बद्र

चारागर की ज़रूरत कुछ दवा की है

दुआ को हाथ उठाओ कि ग़म की रात कटे

राजेन्द्र कृष्ण

दुआ करो कि ये पौदा सदा हरा ही लगे

उदासियों में भी चेहरा खिला खिला ही लगे

बशीर बद्र

ग़म-ए-दिल अब किसी के बस का नहीं

क्या दवा क्या दुआ करे कोई

हादी मछलीशहरी

बाक़ी ही क्या रहा है तुझे माँगने के बाद

बस इक दुआ में छूट गए हर दुआ से हम

आमिर उस्मानी

है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं

मेरे नग़्मात को अंदाज़-ए-नवा याद नहीं

साग़र सिद्दीक़ी

वो बड़ा रहीम करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे

तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मिरी दुआ में असर हो

बशीर बद्र

किसी ने चूम के आँखों को ये दुआ दी थी

ज़मीन तेरी ख़ुदा मोतियों से नम कर दे

बशीर बद्र

बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं

अजीब रस्म चली है दुआ माँगे कोई

इफ़्तिख़ार आरिफ़

हाए कोई दवा करो हाए कोई दुआ करो

हाए जिगर में दर्द है हाए जिगर को क्या करूँ

हफ़ीज़ जालंधरी

गुज़िश्ता साल कोई मस्लहत रही होगी

गुज़िश्ता साल के सुख अब के साल दे मौला

लियाक़त अली आसिम

दुश्मन-ए-जाँ ही सही दोस्त समझता हूँ उसे

बद-दुआ जिस की मुझे बन के दुआ लगती है

मुर्तज़ा बरलास

जाने कौन सी मंज़िल पे इश्क़ पहुँचा

दुआ भी काम आए कोई दवा लगे

अज़ीज़ुर्रहमान शहीद फ़तेहपुरी

अभी दिलों की तनाबों में सख़्तियाँ हैं बहुत

अभी हमारी दुआ में असर नहीं आया

आफ़ताब हुसैन

ये बस्तियाँ हैं कि मक़्तल दुआ किए जाएँ

दुआ के दिन हैं मुसलसल दुआ किए जाएँ

इफ़्तिख़ार आरिफ़

सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त

लेकिन ख़ुदा करे वो तिरा जल्वा-गाह हो

मिर्ज़ा ग़ालिब

ये मोजज़ा भी किसी की दुआ का लगता है

ये शहर अब भी उसी बे-वफ़ा का लगता है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

उस दुश्मन-ए-वफ़ा को दुआ दे रहा हूँ मैं

मेरा हो सका वो किसी का तो हो गया

हफ़ीज़ बनारसी

हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे

सुनने वाले रात कटने की दुआ देने लगे

साक़िब लखनवी

ये इल्तिजा दुआ ये तमन्ना फ़ुज़ूल है

सूखी नदी के पास समुंदर जाएगा

हयात लखनवी

मिरे लिए रुक सके तो क्या हुआ

जहाँ कहीं ठहर गए हो ख़ुश रहो

फ़ाज़िल जमीली

मौत माँगी थी ख़ुदाई तो नहीं माँगी थी

ले दुआ कर चुके अब तर्क-ए-दुआ करते हैं

यगाना चंगेज़ी

कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम

तुम ये इंसाफ़ से सोचो तो दुआ दो हम को

एहसान दानिश

तकमील-ए-आरज़ू से भी होता है ग़म कभी

ऐसी दुआ माँग जिसे बद-दुआ कहें

अबु मोहम्मद सहर

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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