संपूर्ण
परिचय
ग़ज़ल116
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शेर134
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रुबाई12
क़िस्सा13
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अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल 116
नज़्म 433
अशआर 134
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
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माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख
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सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं
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तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ
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तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं
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उद्धरण 10
क़ितआ 10
रुबाई 12
क़िस्सा 13
पुस्तकें 1394
चित्र शायरी 22
क़ौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवा न की क़द्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यक-दाना की आह बद-क़िस्मत रहे आवाज़-ए-हक़ से बे-ख़बर ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर आश्कार उस ने किया जो ज़िंदगी का राज़ था हिन्द को लेकिन ख़याली फ़ल्सफ़ा पर नाज़ था शम-ए-हक़ से जो मुनव्वर हो ये वो महफ़िल न थी बारिश-ए-रहमत हुई लेकिन ज़मीं क़ाबिल न थी आह शूदर के लिए हिन्दोस्ताँ ग़म-ख़ाना है दर्द-ए-इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है बरहमन सरशार है अब तक मय-ए-पिंदार में शम-ए-गौतम जल रही है महफ़िल-ए-अग़्यार में बुत-कदा फिर बाद मुद्दत के मगर रौशन हुआ नूर-ए-इब्राहीम से आज़र का घर रौशन हुआ फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से हिन्द को इक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख़्वाब से
दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ या रब क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँडता है मेरा ऐसा सुकूत जिस पर तक़रीर भी फ़िदा हो मरता हूँ ख़ामुशी पर ये आरज़ू है मेरी दामन में कोह के इक छोटा सा झोंपड़ा हो आज़ाद फ़िक्र से हूँ उज़्लत में दिन गुज़ारूँ दुनिया के ग़म का दिल से काँटा निकल गया हो लज़्ज़त सरोद की हो चिड़ियों के चहचहों में चश्मे की शोरिशों में बाजा सा बज रहा हो गुल की कली चटक कर पैग़ाम दे किसी का साग़र ज़रा सा गोया मुझ को जहाँ-नुमा हो हो हाथ का सिरहाना सब्ज़े का हो बिछौना शरमाए जिस से जल्वत ख़ल्वत में वो अदा हो मानूस इस क़दर हो सूरत से मेरी बुलबुल नन्हे से दिल में उस के खटका न कुछ मिरा हो सफ़ बाँधे दोनों जानिब बूटे हरे हरे हों नद्दी का साफ़ पानी तस्वीर ले रहा हो हो दिल-फ़रेब ऐसा कोहसार का नज़ारा पानी भी मौज बन कर उठ उठ के देखता हो आग़ोश में ज़मीं की सोया हुआ हो सब्ज़ा फिर फिर के झाड़ियों में पानी चमक रहा हो पानी को छू रही हो झुक झुक के गुल की टहनी जैसे हसीन कोई आईना देखता हो मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो रातों को चलने वाले रह जाएँ थक के जिस दम उम्मीद उन की मेरा टूटा हुआ दिया हो बिजली चमक के उन को कुटिया मिरी दिखा दे जब आसमाँ पे हर सू बादल घिरा हुआ हो पिछले पहर की कोयल वो सुब्ह की मोअज़्ज़िन मैं उस का हम-नवा हूँ वो मेरी हम-नवा हो कानों पे हो न मेरे दैर ओ हरम का एहसाँ रौज़न ही झोंपड़ी का मुझ को सहर-नुमा हो फूलों को आए जिस दम शबनम वज़ू कराने रोना मिरा वज़ू हो नाला मिरी दुआ हो इस ख़ामुशी में जाएँ इतने बुलंद नाले तारों के क़ाफ़िले को मेरी सदा दिरा हो हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे
तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना वो अदब-गह-ए-मोहब्बत वो निगह का ताज़ियाना ये बुतान-ए-अस्र-ए-हाज़िर कि बने हैं मदरसे में न अदा-ए-काफ़िराना न तराश-ए-आज़राना नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना रग-ए-ताक मुंतज़िर है तिरी बारिश-ए-करम की कि अजम के मय-कदों में न रही मय-ए-मुग़ाना मिरे हम-सफ़ीर इसे भी असर-ए-बहार समझे उन्हें क्या ख़बर कि क्या है ये नवा-ए-आशिक़ाना मिरे ख़ाक ओ ख़ूँ से तू ने ये जहाँ किया है पैदा सिला-ए-शाहिद क्या है तब-ओ-ताब-ए-जावेदाना तिरी बंदा-परवरी से मिरे दिन गुज़र रहे हैं न गिला है दोस्तों का न शिकायत-ए-ज़माना
न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए जहाँ है तेरे लिए तू नहीं जहाँ के लिए ये अक़्ल ओ दिल हैं शरर शोला-ए-मोहब्बत के वो ख़ार-ओ-ख़स के लिए है ये नीस्ताँ के लिए मक़ाम-ए-परवरिश-ए-आह-ओ-लाला है ये चमन न सैर-ए-गुल के लिए है न आशियाँ के लिए रहेगा रावी ओ नील ओ फ़ुरात में कब तक तिरा सफ़ीना कि है बहर-ए-बे-कराँ के लिए निशान-ए-राह दिखाते थे जो सितारों को तरस गए हैं किसी मर्द-ए-राह-दाँ के लिए निगह बुलंद सुख़न दिल-नवाज़ जाँ पुर-सोज़ यही है रख़्त-ए-सफ़र मीर-ए-कारवाँ के लिए ज़रा सी बात थी अंदेशा-ए-अजम ने उसे बढ़ा दिया है फ़क़त ज़ेब-ए-दास्ताँ के लिए मिरे गुलू में है इक नग़्मा जिब्राईल-आशोब संभाल कर जिसे रक्खा है ला-मकाँ के लिए