Quiz A collection of interesting questions related to Urdu poetry, prose and literary history. Play Rekhta Quiz and check your knowledge about Urdu!
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
लोकप्रिय विषयों और शायरों के चुनिन्दा 20 शेर
उर्दू का पहला ऑनलाइन क्रासवर्ड पज़ल। भाषा और साहित्य से संबंधित दिलचस्प पहेलियाँ हल कीजिए और अपनी मालूमात में इज़ाफ़ा कीजिए।
पहेली हल कीजिएशब्दार्थ
आ देख कि मेरे आँसुओं में
ये किस का जमाल आ गया है
"वैसे ही ख़याल आ गया है" अदा जाफ़री की ग़ज़ल से
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उर्दू में मल्लाह में मांझी या जहाज़ चलाने वाले को कहते हैं। इस शब्द का संबंध अरबी भाषा के शब्द 'मलह' अर्थात नमक से है। चूंकि समुंदर का पानी खारा होता है, पहले तो समुंदर के पानी से नमक बनाने वालों को 'मल्लाह' कहा गया, फिर समुंदर में जाने वालोें को मल्लाह कहा जाने लगा। अब तो मीठे पानी की झील में किश्ती चलाने वाले को भी मल्लाह ही कहते हैं। शब्द 'मलाहत' भी उर्दू में जाना पहचाना है, इसका संबंध भी 'मलह' अर्थात नमक से है यानी सांवलापन, ख़ूबसूरत। बहुत से अश्आर में इसे कई तरीके से बरता गया है।
किश्ती और पानी के सफ़र से संबंधित एक और शब्द उर्दू शायरी में बहुत मिलता है,'नाख़ुदा' जो नाव और ख़ुदा से मिल कर बना है और फ़ारसी से आया है अर्थात किश्ती का मालिक या सरदार:
तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूं मैं
मीर तक़ी मीर के बारे में आम धारणा यह है कि वह टूटे हुए दिल, दुनिया से परेशान इंसान थे जो दर्द-पीड़ा में डूबे अश्आर ही कहते थे। लेकिन दुनिया की दूसरी चीज़ों के साथ साथ मीर को जानवरों से भी गहरी दिलचस्पी थी जो उनकी मसनवियों और आत्म कथात्मक घरेलू नज़्मों में बहुत ही सृजनात्मक ढंग से नज़र आती है। दूसरे शायरों ने भी जानवरों के बारे में लिखा है लेकिन मीर के अशआर में जब जानवर ज़िंदगी का हिस्सा बन कर आते हैं तो उनमें मानवीय गुणों और विशेषताओं का भी रंग आ जाता है। मीर की मसनवी 'मोहिनी बिल्ली' की बिल्ली भी एक पात्र ही मालूम होती है। 'कुपी का बच्चा' में बंदर का बच्चा भी बहुत हद तक इंसान नज़र आता है। मसनवी 'मोर नामा' एक रानी और एक मोर के इश्क़ की दुखद दास्तान है जिसमें दोनों आख़िर में जल मरते हैं। इसके अलावा मुर्ग़, बकरी आदि पर भी उनकी मसनवियां हैं।
उनकी मशहूर मसनवी 'अज़दर नामा' जानवरों के नाम, उनकी आदतें और विशेषताओं के वर्णन से भरा हुआ है। उसमें केंद्रीय पात्र अजगर के अलावा तीस जानवरों के नाम शामिल हैं। मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने लिखा है कि मीर ने उसमें ख़ुद को अज़दहा कहा और दूसरे सभी शायरों को कीड़े मकोड़े माना है, हालांकि उसमें किसी का नाम नहीं लिया गया है।
मुहावरे के एतबार से उर्दू बहुत ही संपन्न भाषा है। ग़ज़ल के शायरों ने विशेष रूप से मुहावरों को स्थायित्व प्रदान किया है। ज़रा सोचिए कि सिर्फ़ शब्द आंख से संबंध रखने वाले मुहावरे फ़रहंग आसफ़िया में 45 पृष्ठों पर फैले हुए हैं और हर मुहावरे के मायने समझाने के लिए बहुत से अश्आर भी दिए गए हैं। उर्दू शायरी में कुछ मुहावरे फ़ारसी से आये हैं, लेकिन अधिकतर शुद्ध हिंदुस्तानी हैं। दाग़ ने रोज़मर्रा और मुहावरे के इस्तेमाल को आसमान तक पहुंचा दिया। 'मुहावरात-ए-दाग़'(वली अहमद ख़ां 1944) के नाम से हज़ारों अश्आर पर आधारित किताब मौजूद है। उस किताब में सौ से ज़्यादा अश्आर ऐसे हैं जिनमें आंखों से संबंधित विभिन्न मुहावरे अपनी बहार दिखाते हैं। एक साहित्य प्रेमी नेत्र विशेषज्ञ और सर्जन डॉ अब्दुल मोइज़ शम्स ने चार सौ पृष्ठों की किताब 'आंख और उर्दू शायरी'(2018) प्रकाशित की है। इसमें आंख के मुहावरों पर एक अध्याय में विभिन्न शायरों के अनगिनत अश्आर शामिल हैं।
एक कहावत है "हाथ कंगन को आरसी क्या"। इसका मतलब तो बाद में समझेंगे लेकिन क्या आप जानते हैं कि आरसी बड़ी सी अंगूठी होती थी जो पिछले ज़माने में औरतें अपने हाथ के अंगूठे में पहना करती थीं। उसमें नगों के बीच एक गोल आईना लगा होता था। औरतें उसमें देख कर अपना सिंगार दुरुस्त किया करती थीं।
आरसी पर बहुत से शे'र कहे गए हैं:
आईना सामने न सही आरसी तो है
तुम अपने मुस्कुराने का अंदाज़ देखना
"हाथ कंगन को आरसी क्या", इसका मतलब है कि हाथ में पहने हुए कंगन को देखने के लिए आरसी की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वह तो नज़रों के सामने ही है। यह कहावत ऐसे मौक़े पर कही जाती है जब कोई बात स्पष्ट और बिल्कुल सामने की हो,जिसको बयान करने की ज़रूरत ही न हो।
यह कहावत भी बहुत मशहूर है:
"हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या।"
शादियों में एक रस्म भी होती है जो "आरसी मुस्हफ़" कहलाती है, जिसमें दूल्हा और दुल्हन को आमने सामने बिठाकर उनके सर पर दुशाला या दुपट्टा डाल दिया जाता है और बीच में आईना रख देते हैं। दोनों एक दूसरे की शक्ल क़ुरआन की एक सूरा (वाक्य) पढ़ कर देखते हैं।मुस्हफ़ क़ुरआन शरीफ़ को कहते हैं।
बिना तरन्नुम के शायरी सुनाने को "तहत उल लफ़्ज़" कहा जाता है जिस को "तहत में पढ़ना" भी कहते हैं। शायरी को तरन्नुम से पेश किया जाए तो तर्ज़ और पढ़ने वाले की आवाज़ श्रोताओं को ज़्यादातर आकर्षित रखती है, जबकि तहत उल लफ़्ज़ में शब्दों की शान, आवाज़ के उतार चढ़ाव से शायरी का पूरा लुत्फ़ आता है। मुशायरों में ग़ज़लें और नज़्में तहत में बख़ूबी पढ़ी जाती हैं लेकिन शोक सभा में तहत उल लफ़्ज़ मर्सिया पढ़ने वालों ने तो उसे एक विशेष नाटकीय कला में रूपांतरित कर दिया है। मशहूर मर्सिया गो मीर अनीस के एक समकालिक मशहूर शायर मीर अनीस की मर्सिया गोई के क़ाइल न थे, उन्होंने लिखा है कि एक बार संयोग से अनीस की मजलिस में शिरकत हुई, मर्सिया के दूसरे ही बंद की बैत (छंद):
सातों जहन्नुम आतिश ए फ़ुरक़त में जलते हैं
शोले तिरी तलाश में बाहर निकलते हैं
"अनीस ने इस अंदाज़ से पढ़ी कि मुझे शोले भड़कते हुए दिखाई देने लगे और मैं उनका पढ़ना, सुनने में ऐसा लीन हुआ कि तन बदन का होश न रहा।"
जब नई शायरी आज़ाद नज़्म के रूप में प्रकट हुई तो मुशायरों में उसको सुनने के लिए कोई आमादा नज़र नहीं आता था। मशहूर एक्टर और ब्राडकास्टर ज़िया मुहीउद्दीन ने नून मीम राशिद की नज़्में विभिन्न आयोजनों में सुनाने का प्रयोग किया। उन्होंने कुछ इस तरह ये नज़्में सुनाईं कि जिन श्रोताओं के लिए ये नज़्में अस्पष्ट और व्यर्थ और काव्यात्मक अभिव्यक्ति से दूर थीं, वो भी इस पढ़त के जादू में आ गए और उन्हें उन नज़्मों में शायरी भी नज़र आ रही थी और मायने भी।
जन्मदिन
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