आमिर उस्मानी
ग़ज़ल 8
नज़्म 3
अशआर 14
ये क़दम क़दम बलाएँ ये सवाद-ए-कू-ए-जानाँ
वो यहीं से लौट जाए जिसे ज़िंदगी हो पियारी
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चंद अल्फ़ाज़ के मोती हैं मिरे दामन में
है मगर तेरी मोहब्बत का तक़ाज़ा कुछ और
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बाक़ी ही क्या रहा है तुझे माँगने के बाद
बस इक दुआ में छूट गए हर दुआ से हम
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आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का ग़म कैसा
आदमी मोहब्बत में सब को भूल जाता है
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इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है
आफ़तें बरसती हैं दिल सुकून पाता है
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