साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल 43
अशआर 44
ज़िंदगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह काटी है
जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा याद नहीं
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जिस अहद में लुट जाए फ़क़ीरों की कमाई
उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है
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कल जिन्हें छू नहीं सकती थी फ़रिश्तों की नज़र
आज वो रौनक़-ए-बाज़ार नज़र आते हैं
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ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
जा चुकी है बहार चुप हो जा
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मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
ज़िंदगी की कोई कड़ी होगी
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क़ितआ 22
नअत 1
पुस्तकें 7
चित्र शायरी 6
वीडियो 9
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