बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल 46
अशआर 17
अब आदमी कुछ और हमारी नज़र में है
जब से सुना है यार लिबास-ए-बशर में है
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हमारी ज़िंदगी तो मुख़्तसर सी इक कहानी थी
भला हो मौत का जिस ने बना रक्खा है अफ़्साना
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तुम जो चाहो तो मिरे दर्द का दरमाँ हो जाए
वर्ना मुश्किल है कि मुश्किल मिरी आसाँ हो जाए
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अपना तो ये मज़हब है काबा हो कि बुत-ख़ाना
जिस जा तुम्हें देखेंगे हम सर को झुका देंगे
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सब ने ग़ुर्बत में मुझ को छोड़ दिया
इक मिरी बेकसी नहीं जाती
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