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नज़ीर बाक़री

संभल, भारत

नज़ीर बाक़री

ग़ज़ल 10

अशआर 13

अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे

तेरा मुजरिम हूँ मुझे डूब के मर जाने दे

गया याद उन्हें अपने किसी ग़म का हिसाब

हँसने वालों ने मिरे अश्क जो गिन के देखे

ख़ूब गए परदेस कि अपने दीवार-ओ-दर भूल गए

शीश-महल ने ऐसा घेरा मिट्टी के घर भूल गए

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ज़ख़्म कितने तिरी चाहत से मिले हैं मुझ को

सोचता हूँ कि कहूँ तुझ से मगर जाने दे

ता उम्र फिर होगी उजालों की आरज़ू

तू भी किसी चराग़ की लौ से लिपट के देख

चित्र शायरी 3

 

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