अम्न पर शेर
शायरी का एक अहम तरीन
काम ये भी होता है कि वह बहुत ख़ामोशी से हमें एक बेहतर इंसान बनने की राह पर लगा देती है। और फिर धीरे धीरे हम ज़िंदगी में हर तरह की नकारात्मकता को नकारने लगते हैं। ‘अम्न’ के इस विषय से हम आपके लिए कुछ ऐसी ही शायरी पेश कर रहे हैं जो आपको हर क़िस्म के ख़तरनाक इंसानी जज़्बात की गिरफ़्त से बचाने में अहम भूमिका अदा कर सकती है। ये शायरी बेहतर इंसान बनने के लिए एक सबक़ भी है और दुनिया में अम्न व शांति क़ायम करने की कोशिश में लगे लोगों के लिए एक छोटी सी गाइड बुक भी। आप इसे पढ़िए और इसमें मौजूद पैग़ाम को आम कीजिए।
मासूम है मासूम बहुत अम्न की देवी
क़ब्ज़े में लिए ख़ंजर-ए-ख़ूँ-ख़ार अभी तक
अम्न का क़त्ल हो गया जब से
शहर अब बद-हवास रहता है
अजीब दर्द का रिश्ता है सारी दुनिया में
कहीं हो जलता मकाँ अपना घर लगे है मुझे
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे
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हाँ दिल-ए-बे-ताब चंदे इंतिज़ार
अम्न-ओ-राहत का ठिकाना और है
सभी के दीप सुंदर हैं हमारे क्या तुम्हारे क्या
उजाला हर तरफ़ है इस किनारे उस किनारे क्या
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अम्न और आश्ती से उस को क्या
उस का मक़्सद तो इंतिशार में है
अम्न था प्यार था मोहब्बत था
रंग था नूर था नवा था फ़िराक़
ये दुनिया नफ़रतों के आख़री स्टेज पे है
इलाज इस का मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं है
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
मैं तो हर वक़्त मोहब्बत से भरा रहता हूँ
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
मिल के सब अम्न-ओ-चैन से रहिए
लानतें भेजिए फ़सादों पर
फ़ज़ा ये अम्न-ओ-अमाँ की सदा रखें क़ाएम
सुनो ये फ़र्ज़ तुम्हारा भी है हमारा भी
ख़ुदा-ए-अम्न जो कहता है ख़ुद को
ज़मीं पर ख़ुद ही मक़्तल लिख रहा है
सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें
आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत
अपने देश में घर घर अम्न है कि झगड़े हैं
देखो रोज़-नामों की सुर्ख़ियाँ बताएँगी
सुना है अम्न-परस्तों का वो इलाक़ा है
वहीं शिकार कबूतर हुआ तो कैसे हुआ
शहर में अम्न-ओ-अमाँ हो ये ज़रूरी है मगर
हाकिम-ए-वक़त के माथे पे लिखा ही कुछ है
जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों
पर्वाज़ में था अम्न का मासूम परिंदा
सुनते हैं कि बे-चारा शजर तक नहीं पहुँचा
अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए
चलो अम्न-ओ-अमाँ है मय-कदे में
वहीं कुछ पल ठहर कर देखते हैं
अम्न 'कैफ़ी' हो नहीं सकता कभी
जब तलक ज़ुल्म-ओ-सितम मौजूद है
अम्न प्रचार तलक ठीक सही लेकिन अम्न
तुम को लगता है कि होगा नहीं होने वाला
इक शजर ऐसा मोहब्बत का लगाया जाए
जिस का हम-साए के आँगन में भी साया जाए
बादलों ने आज बरसाया लहू
अम्न का हर फ़ाख़्ता रोने लगा
जंग का शोर भी कुछ देर तो थम सकता है
फिर से इक अम्न की अफ़्वाह उड़ा दी जाए
'हफ़ीज़' अपनी बोली मोहब्बत की बोली
न उर्दू न हिन्दी न हिन्दोस्तानी
सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है
आदमी आदमी को भूल गया
कितना पुर-अम्न है माहौल फ़सादात के बा'द
शाम के वक़्त निकलता नहीं बाहर कोई