बक़ा बलूच
ग़ज़ल 9
नज़्म 4
अशआर 13
अम्न के सारे सपने झूटे
सपनों की ताबीरें झूटी
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कैसा लम्हा आन पड़ा है
हँसता घर वीरान पड़ा है
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तू ख़ुश है अपनी दुनिया में
मैं तिरी याद में जलता हूँ
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लोग चले हैं सहराओं को
और नगर सुनसान पड़ा है
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हर कूचे में अरमानों का ख़ून हुआ
शहर के जितने रस्ते हैं सब ख़ूनीं हैं
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