शमीम क़ासमी
ग़ज़ल 12
नज़्म 9
अशआर 3
शहर में अम्न-ओ-अमाँ हो ये ज़रूरी है मगर
हाकिम-ए-वक़त के माथे पे लिखा ही कुछ है
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मूए ने मुँह की खाई फिर भी ये ज़ोर ज़ोरी
ये रेख़्ती है भाई तुम रेख़्ता तो जानो
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घर में आसेब ज़लज़ले का है
इस लिए ख़ुद में ही सिमट के हैं
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