क़लक़ मेरठी
ग़ज़ल 42
अशआर 51
तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही
तू नहीं और सही और नहीं और सही
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तुझ से ऐ ज़िंदगी घबरा ही चले थे हम तो
पर तशफ़्फ़ी है कि इक दुश्मन-ए-जाँ रखते हैं
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हो मोहब्बत की ख़बर कुछ तो ख़बर फिर क्यूँ हो
ये भी इक बे-ख़बरी है कि ख़बर रखते हैं
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ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं
सभी मजबूर हैं दिल से मोहब्बत आ ही जाती है
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मूसा के सर पे पाँव है अहल-ए-निगाह का
उस की गली में ख़ाक उड़ी कोह-ए-तूर की
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