प्रसिद्ध मिसरे पर शेर
ऐसे अशआर भी कसीर तादाद
में हैं जिनका एक ही मिस्रा इतना मशहूर हुआ कि ज़्यादा-तर लोग दूसरे मिसरे से वाक़िफ़ ही नहीं होते। “पहुँची वहीं पे ख़ाक-ए-जहाँ का ख़मीर था” ये मिस्रा सबको याद होगा लेकिन मुकम्मल शेर कम लोग जानते हैं। हमने ऐसे मिस्रों को मुकम्मल शेर की सूरत में जमा किया है। हमें उम्मीद है हमारा ये इंतिख़ाब आपको पसंद आएगा।
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
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राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
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सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ
ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है
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मकतब-ए-इश्क़ का दस्तूर निराला देखा
उस को छुट्टी न मिले जिस को सबक़ याद रहे
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे
अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
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ख़बर सुन कर मिरे मरने की वो बोले रक़ीबों से
ख़ुदा बख़्शे बहुत सी ख़ूबियाँ थीं मरने वाले में
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सुर्ख़-रू होता है इंसाँ ठोकरें खाने के बा'द
रंग लाती है हिना पत्थर पे पिस जाने के बा'द
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दिल के फफूले जल उठे सीने के दाग़ से
इस घर को आग लग गई घर के चराग़ से
क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो
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सदा ऐश दौराँ दिखाता नहीं
गया वक़्त फिर हाथ आता नहीं
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ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम
रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है दस्तूर भी है
भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं
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ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर'
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है
चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले
आशिक़ का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे
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न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबाँ आते आते
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'मीर' अमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे
हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे
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ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है
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सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
कहती है तुझ को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ग़ाएबाना क्या
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शह-ज़ोर अपने ज़ोर में गिरता है मिस्ल-ए-बर्क़
वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले
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ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई
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बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को नक़्क़ारा-ए-ख़ुदा समझो
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नाला-ए-बुलबुल-ए-शैदा तो सुना हँस हँस कर
अब जिगर थाम के बैठो मिरी बारी आई
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हज़रत-ए-दाग़ जहाँ बैठ गए बैठ गए
और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले
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बहुत जी ख़ुश हुआ 'हाली' से मिल कर
अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जहाँ में
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लगे मुँह भी चिढ़ाने देते देते गालियाँ साहब
ज़बाँ बिगड़ी तो बिगड़ी थी ख़बर लीजे दहन बिगड़ा
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शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी
कोई पत्थर से न मारे मिरे दीवाने को
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आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो
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अगर बख़्शे ज़हे क़िस्मत न बख़्शे तो शिकायत क्या
सर-ए-तस्लीम ख़म है जो मिज़ाज-ए-यार में आए
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बंदिश-ए-अल्फ़ाज़ जड़ने से नगों के कम नहीं
शाइ'री भी काम है 'आतिश' मुरस्सा-साज़ का
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लगा रहा हूँ मज़ामीन-ऐ-नौ के फिर अम्बार
ख़बर करो मेरे ख़िरमन के ख़ोशा-चीनों को
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पीरी में वलवले वो कहाँ हैं शबाब के
इक धूप थी कि साथ गई आफ़्ताब के