मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल 21
अशआर 21
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है
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हमारे ऐब ने बे-ऐब कर दिया हम को
यही हुनर है कि कोई हुनर नहीं आता
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इतना तो जज़्ब-ए-इश्क़ ने बारे असर किया
उस को भी अब मलाल है मेरे मलाल का
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दौलत नहीं काम आती जो तक़दीर बुरी हो
क़ारून को भी अपना ख़ज़ाना नहीं मिलता
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न सिकंदर है न दारा है न क़ैसर है न जम
बे-महल ख़ाक में हैं क़स्र बनाने वाले
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