Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

रक़ीब पर शेर

खेल का अस्ल मज़ा तो

तब आता है जब आपका कोई प्रतिद्वंदी भी सामने हो जो जिसकी हार में आपको अपनी जीत, और जिसकी जीत में अपनी हार दिखाई दे। शायरी में रक़ीब इसी प्रतिद्वंदी को कहते है जिसे महबूब की वह इनायतें हासिल होती हैं जिनके लिए सच्चा आशिक़ तड़पता और मचलता रहता है। दरअस्ल रक़ीब उर्दू शायरी का ऐसा विलेन है जिसकी अस्लियत महबूब से हमेशा पोशीदा रहती है और आशिक़ जलने और कुढ़ने के सिवा कुछ नहीं कर पाता। रक़ीब शायरी के इस इन्तिख़ाब से आप सब कुछ ब-आसानी समझ सकते हैः

इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ

जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से

साहिर लुधियानवी

मैं समझा आप आए कहीं से

पसीना पोछिए अपनी जबीं से

अनवर देहलवी

दोज़ख़ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने

घर रक़ीबों ने बनाया उस के घर के सामने

पंडित दया शंकर नसीम लखनवी

ले मेरे तजरबों से सबक़ मिरे रक़ीब

दो-चार साल उम्र में तुझ से बड़ा हूँ मैं

क़तील शिफ़ाई

रफ़ीक़ों से रक़ीब अच्छे जो जल कर नाम लेते हैं

गुलों से ख़ार बेहतर हैं जो दामन थाम लेते हैं

अज्ञात

जो कोई आवे है नज़दीक ही बैठे है तिरे

हम कहाँ तक तिरे पहलू से सरकते जावें

मीर हसन

मुझ से बिगड़ गए तो रक़ीबों की बन गई

ग़ैरों में बट रहा है मिरा ए'तिबार आज

अहमद हुसैन माइल

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था

था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

दाग़ देहलवी

इधर रक़ीब मेरे मैं तुझे गले लगा लूँ

मिरा इश्क़ बे-मज़ा था तिरी दुश्मनी से पहले

कैफ़ भोपाली

उस नक़्श-ए-पा के सज्दे ने क्या क्या किया ज़लील

मैं कूचा-ए-रक़ीब में भी सर के बल गया

मोमिन ख़ाँ मोमिन

रक़ीब क़त्ल हुआ उस की तेग़-ए-अबरू से

हराम-ज़ादा था अच्छा हुआ हलाल हुआ

आग़ा अकबराबादी

जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार

काश जानता तिरे रह-गुज़र को मैं

मिर्ज़ा ग़ालिब

जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को

इक तमाशा हुआ गिला हुआ

मिर्ज़ा ग़ालिब

बैठे हुए रक़ीब हैं दिलबर के आस-पास

काँटों का है हुजूम गुल-ए-तर के आस-पास

जिगर मुरादाबादी

ग़ैर से खेली है होली यार ने

डाले मुझ पर दीदा-ए-ख़ूँ-बार रंग

इमाम बख़्श नासिख़

याद आईं उस को देख के अपनी मुसीबतें

रोए हम आज ख़ूब लिपट कर रक़ीब से

हफ़ीज़ जौनपुरी

अपनी ज़बान से मुझे जो चाहे कह लें आप

बढ़ बढ़ के बोलना नहीं अच्छा रक़ीब का

लाला माधव राम जौहर

हमें नर्गिस का दस्ता ग़ैर के हाथों से क्यूँ भेजा

जो आँखें ही दिखानी थीं दिखाते अपनी नज़रों से

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

आप ही से जब रहा मतलब

फिर रक़ीबों से मुझ को क्या मतलब

हफ़ीज़ जौनपुरी

ग़ुस्सा आता है प्यार आता है

ग़ैर के घर से यार आता है

मोहम्मद अली ख़ाँ रश्की

कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते

मैं ने तो रक़ीबों से सुना और ही कुछ है

अमीर मीनाई

जिस का तुझ सा हबीब होवेगा

कौन उस का रक़ीब होवेगा

मीर सोज़

हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें

हमें हमारे रक़ीबों ने मो'तबर जाना

आलमताब तिश्ना

वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब

मैं ने उस को हम-सफ़र जाना कि तू उस की भी थी

ज़ुहूर नज़र

गो आप ने जवाब बुरा ही दिया वले

मुझ से बयाँ कीजे अदू के पयाम को

मोमिन ख़ाँ मोमिन

हाल मेरा भी जा-ए-इबरत है

अब सिफ़ारिश रक़ीब करते हैं

हफ़ीज़ जौनपुरी

रक़ीब दोनों जहाँ में ज़लील क्यूँ होता

किसी के बीच में कम-बख़्त अगर नहीं आता

कैफ़ी हैदराबादी

सामने उस के कहते मगर अब कहते हैं

लज़्ज़त-ए-इश्क़ गई ग़ैर के मर जाने से

अज्ञात

ये कह के मेरे सामने टाला रक़ीब को

मुझ से कभी की जान पहचान जाइए

बेख़ुद देहलवी

सदमे उठाएँ रश्क के कब तक जो हो सो हो

या तो रक़ीब ही नहीं या आज हम नहीं

लाला माधव राम जौहर

कू-ए-जानाँ में ग़ैरों की रसाई हो जाए

अपनी जागीर ये या-रब पराई हो जाए

लाला माधव राम जौहर

मत बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता पर मिरे हँस रक़ीब तू

होगा तिरे नसीब भी ये ख़्वाब देखना

मीर हसन

आग़ोश सीं सजन के हमन कूँ किया कनार

मारुँगा इस रक़ीब कूँ छड़ियों से गोद गोद

आबरू शाह मुबारक

बस एक प्यार ने सालिम रखा हमें यारो

रक़ीब मर गए हम में शिगाफ़ करते हुए

मुकेश आलम
बोलिए