गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझ को भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जान-ए-मन त्यौहार होली में
तेरे गालों पे जब गुलाल लगा
ये जहाँ मुझ को लाल लाल लगा
मुँह पर नक़ाब-ए-ज़र्द हर इक ज़ुल्फ़ पर गुलाल
होली की शाम ही तो सहर है बसंत की
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
बिन होली खेले ही साजन भीग गया
ग़ैर से खेली है होली यार ने
डाले मुझ पर दीदा-ए-ख़ूँ-बार रंग
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
हम से तुम कुछ माँगने आओ बहाने फाग के
अब की होली में रहा बे-कार रंग
और ही लाया फ़िराक़-ए-यार रंग
मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ
यूँ भी अक्सर बहार आई है
वो तमाशा ओ खेल होली का
सब के तन रख़्त-ए-केसरी है याद
बहार आई कि दिन होली के आए
गुलों में रंग खेला जा रहा है
होली के अब बहाने छिड़का है रंग किस ने
नाम-ए-ख़ुदा तुझ ऊपर इस आन अजब समाँ है
बादल आए हैं घिर गुलाल के लाल
कुछ किसी का नहीं किसी को ख़याल
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
अब के होली में बनाना गुल को जोगन ऐ सबा
किस की होली जश्न-ए-नौ-रोज़ी है आज
सुर्ख़ मय से साक़िया दस्तार रंग
वो रंग रंग के छींटे पड़े कि उस के ब'अद
कभी न फिर नए कपड़े पहन के निकला मैं
साँस लेता हुआ हर रंग नज़र आएगा
तुम किसी रोज़ मिरे रंग में आओ तो सही
मुहय्या सब है अब अस्बाब-ए-होली
उठो यारो भरो रंगों से झोली
तू भी देखेगा ज़रा रंग उतर लें तेरे
हम ही रखते हैं तुझे याद कि सब रखते हैं
कब तक चुनरी पर ही ज़ुल्म हों रंगों के
रंगरेज़ा तेरी भी क़बा पर बरसे रंग
सैकड़ों रंगों की बारिश हो चुकेगी उस के बाद
इत्र में भीगी हुई शामों का मंज़र आएगा
मैं ने कुछ रंग उछाले थे हवाओं में 'नबील'
और तस्वीर तिरी ध्यान से बाहर आई
वो कूदते उछलते रंगीन पैरहन थे
मासूम क़हक़हों में उड़ता गुलाल देखा
बहुत ही ख़ुश्की में गुज़री है इस बरस होली
गिला है तुझ से कि गीला नहीं किया मुझ को
सब का अलग अंदाज़ था सब रंग रखते थे जुदा
रहना सभी के साथ था सो ख़ुद को पानी कर लिया
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
चाँद और तारे लिए फिरते हैं अफ़्शाँ हाथ में
सहज याद आ गया वो लाल होली-बाज़ जूँ दिल में
गुलाली हो गया तन पर मिरे ख़िर्क़ा जो उजला था
वो आए तो रंग सँवरने लगते हैं
जैसे बिछड़ा यार भी कोई मौसम है
लब-ए-दरिया पे देख आ कर तमाशा आज होली का
भँवर काले के दफ़ बाजे है मौज ऐ यार पानी में
मैं दूर था तो अपने ही चेहरे पे मल लिया
इस ज़िंदगी के हाथ में जितना गुलाल था
कितनी रंगीनियों में तेरी याद
किस क़दर सादगी से आती है
इधर भी इक नज़र ऐ जल्वा-ए-रंगीन-ओ-बेगाना
तुलू-ए-माह का है मुंतज़िर मेरा सियह-ख़ाना
मेरे 'अनासिर ख़ाक न हों बस रंग बनें
और जंगल सहरा दरिया पर बरसे रंग