अनवर देहलवी
ग़ज़ल 11
अशआर 26
न मैं समझा न आप आए कहीं से
पसीना पोछिए अपनी जबीं से
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कुछ ख़बर होती तो मैं अपनी ख़बर क्यूँ रखता
ये भी इक बे-ख़बरी थी कि ख़बर-दार रहा
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शर्म भी इक तरह की चोरी है
वो बदन को चुराए बैठे हैं
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मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
अब तक तो जिस ज़मीं पे रहे आसमाँ रहे
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सूरत छुपाइए किसी सूरत-परस्त से
हम दिल में नक़्श आप की तस्वीर कर चुके
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