मीर सोज़
ग़ज़ल 17
अशआर 8
जिस का तुझ सा हबीब होवेगा
कौन उस का रक़ीब होवेगा
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सर ज़ानू पे हो उस के और जान निकल जाए
मरना तो मुसल्लम है अरमान निकल जाए
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उन से और मुझ से यही शर्त-ए-वफ़ा ठहरी है
वो सितम ढाएँ मगर उन को सितम-गर न कहूँ
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रुस्वा हुआ ख़राब हुआ मुब्तला हुआ
वो कौन सी घड़ी थी कि तुझ से जुदा हुआ
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अहल-ए-ईमाँ 'सोज़' को कहते हैं काफ़िर हो गया
आह या रब राज़-ए-दिल इन पर भी ज़ाहिर हो गया
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