Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

ख़फ़ा पर शेर

ख़फ़ा होना और एक दूसरे

से नाराज़ होना ज़िंदगी में एक आम सा अमल है लेकिन शायरी में ख़फ़्गी की जितनी सूरतें हैं वह आशिक़ और माशूक़ के दर्मियान की हैं। शायरी में ख़फ़ा होने, नाराज़ होने और फिर राज़ी हो जाने का जो एक दिल-चस्प खेल है उस की चंद तस्वीरें हम इस इन्तिख़ाब में आप के सामने पेश कर रहे हैं।

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम

तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए

अहमद फ़राज़

लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से

तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से

जाँ निसार अख़्तर

या वो थे ख़फ़ा हम से या हम हैं ख़फ़ा उन से

कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है

जिगर मुरादाबादी

इश्क़ में तहज़ीब के हैं और ही कुछ फ़लसफ़े

तुझ से हो कर हम ख़फ़ा ख़ुद से ख़फ़ा रहने लगे

आलम ख़ुर्शीद

इतना तो बता जाओ ख़फ़ा होने से पहले

वो क्या करें जो तुम से ख़फ़ा हो नहीं सकते

असद भोपाली

हुस्न यूँ इश्क़ से नाराज़ है अब

फूल ख़ुश्बू से ख़फ़ा हो जैसे

इफ़्तिख़ार आज़मी

मुझ से बिगड़ गए तो रक़ीबों की बन गई

ग़ैरों में बट रहा है मिरा ए'तिबार आज

अहमद हुसैन माइल

यही हालात इब्तिदा से रहे

लोग हम से ख़फ़ा ख़फ़ा से रहे

जावेद अख़्तर

छेड़ मत हर दम आईना दिखा

अपनी सूरत से ख़फ़ा बैठे हैं हम

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ

संग-दिल तुझे भी ख़बर है कि क्या हुआ

अर्श सिद्दीक़ी

किसी माशूक़ का आशिक़ से ख़फ़ा हो जाना

रूह का जिस्म से गोया है जुदा हो जाना

अहसन मारहरवी

तुझ से बरहम हूँ कभी ख़ुद से ख़फ़ा

कुछ अजब रफ़्तार है तेरे बग़ैर

शकील बदायूनी

ख़फ़ा हैं फिर भी कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में

हमारे हाल पर कुछ मेहरबानी अब भी होती है

अख़्तर शीरानी

ये जो रातों को मुझे ख़्वाब नहीं आते 'अता'

इस का मतलब है मिरा यार ख़फ़ा है मुझ से

अहमद अता

मेरी बेताबियों से घबरा कर

कोई मुझ से ख़फ़ा हो जाए

अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी

जिस की हवस के वास्ते दुनिया हुई अज़ीज़

वापस हुए तो उस की मोहब्बत ख़फ़ा मिली

साक़ी फ़ारुक़ी

वो ख़ुश हो के मुझ से ख़फ़ा हो गया

मुझे क्या उमीदें थीं क्या हो गया

जगत मोहन लाल रवाँ

मैं अपने-आप से हर दम ख़फ़ा रहता हूँ यूँ 'आज़र'

पुरानी दुश्मनी हो जिस तरह दो ख़ानदानों में

कफ़ील आज़र अमरोहवी

लाई है कहाँ मुझ को तबीअत की दो-रंगी

दुनिया का तलबगार भी दुनिया से ख़फ़ा भी

मिद्हत-उल-अख़्तर

या ख़फ़ा होते थे हम तो मिन्नतें करते थे आप

या ख़फ़ा हैं हम से वो और हम मना सकते नहीं

मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस

ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे

मगर लोगों से अब ख़ाइफ़ ख़ुदा है

नरेश कुमार शाद

जाने क्यूँ उन से मिलते रहते हैं

ख़ुश वो क्या होंगे जब ख़फ़ा ही नहीं

बाक़र मेहदी

ख़फ़ा देखा है उस को ख़्वाब में दिल सख़्त मुज़्तर है

खिला दे देखिए क्या क्या गुल-ए-ताबीर-ए-ख़्वाब अपना

नज़ीर अकबराबादी

आज फिर ख़ुद से ख़फ़ा हूँ तो यही करता हूँ

आज फिर ख़ुद से कोई बात नहीं करता मैं

तरकश प्रदीप

छेड़ा है दस्त-ए-शौक़ ने मुझ से ख़फ़ा हैं वो

गोया कि अपने दिल पे मुझे इख़्तियार है

हसरत मोहानी

मिल भी जाओ यूँही तुम बहर-ए-ख़ुदा आप से आप

जिस तरह हो गए हो हम से ख़फ़ा आप से आप

लाला माधव राम जौहर
बोलिए