पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
ग़ज़ल 44
अशआर 15
दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने
घर रक़ीबों ने बनाया उस के घर के सामने
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लाए उस बुत को इल्तिजा कर के
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा कर के
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समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया
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- ग़ज़ल देखिए
बुतों की गली छोड़ कर कौन जाए
यहीं से है काबा को सज्दा हमारा
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क्या लुत्फ़ जो ग़ैर पर्दा खोले
जादू वो जो सर पे चढ़ के बोले
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