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Mirza Ghalib's Photo'

मिर्ज़ा ग़ालिब

1797 - 1869 | दिल्ली, भारत

विश्व-साहित्य में उर्दू की सबसे बुलंद आवाज़। सबसे अधिक सुने-सुनाए जाने वाले महान शायर

विश्व-साहित्य में उर्दू की सबसे बुलंद आवाज़। सबसे अधिक सुने-सुनाए जाने वाले महान शायर

मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर

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कब वो सुनता है कहानी मेरी

और फिर वो भी ज़बानी मेरी

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद

वगरना हम तो तवक़्क़ो ज़्यादा रखते हैं

बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल

कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का

मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को

इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए

दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल

हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना

जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की

लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की

'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं

रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ

सब्ज़ा गुल कहाँ से आए हैं

अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है

उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है 'ग़ालिब'

हम भी गए वाँ और तिरी तक़दीर को रो आए

नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं

तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशाँ हो गईं

इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं

जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर

बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'

तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं

ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ

लोग नाले को रसा बाँधते हैं

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन

दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ ग़र्क़-ए-दरिया

कभी जनाज़ा उठता कहीं मज़ार होता

व्याख्या

ये ग़ालिब के मशहूर अशआर में से एक है। ग़र्क़ के मानी हैं डूबना। ग़र्क़-ए-दरिया के मायनी हैं दरिया में डूबना, रुस्वा होना के मानी हैं बेइज्ज़त होना।

ग़ालिब ने इस शे’र में एक ख़ूबसूरत ख़्याल पेश किया है कि मेरे मरने के बाद मेरा जनाज़ा उठा। फिर मेरी क़ब्र बन गई और इस तरह से मैं बेइज़्ज़त हो गया। कितना अच्छा था कि अगर मैं दरिया में डूब के मर जाता, मेरी लाश मिलती, मेरा जनाज़ा उठता और मेरी क़ब्र ही बनती। ये तो हुए नज़दीक के मानी , यानी शाब्दिक अर्थ। वास्तविक तात्पर्य ग़ालिब की ये है कि मैं अपनी ज़िंदगी में इतना बेइज़्ज़त हुआ हूँ कि मरने के बाद भी मेरी बेइज्ज़ती ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। यानी जब मैं मर गया, लोगों ने मेरा जनाज़ा उठाया और फिर एक दूसरे से पूछा कि किसका जनाज़ा जा रहा है? पूछने पर जब मालूम हुआ तो बोले कि अरे, ये उसी ज़माने भर का रुस्वा ग़ालिब का जनाज़ा है? फिर जब मेरी क़ब्र बन गई तब लोगों ने पूछा कि ये किसकी क़ब्र है? मालूम हुआ कि ग़ालिब की है, फिर बोले अरे ये उसी ज़माने भर का रुस्वा ग़ालिब की क़ब्र है। इस तरह से ग़ालिब क़ियामत तक बेइज़्ज़त होते रहेंगे। इसीलिए वो अपनी इस इच्छा को ज़ाहिर करते हैं कि काश, हमारी मौत दरिया में डूबने से होती ताकि लाश दरिया से कभी बरामद ही होती।

शफ़क़ सुपुरी

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे

कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और

मौत का एक दिन मुअय्यन है

नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

व्याख्या

इस शे’र की गिनती ग़ालिब के मशहूर अशआर में होती है। इस शे’र में ग़ालिब ने ख़ूब सारे संदर्भों का इस्तेमाल किया है, जैसे दिन के अनुरूप रात, मौत के संदर्भ से नींद। इस शे’र में ग़ालिब ने मानव मनोविज्ञान के एक अहम पहलू से पर्दा उठाकर एक नाज़ुक विषय स्थापित किया है। शे’र के शाब्दिक अर्थ तो ये हैं कि जबकि अल्लाह ने हर प्राणी की मौत का एक दिन निर्धारित किया है और मैं भी इस तथ्य से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ, फिर मुझे रात भर नींद क्यों नहीं आती। ध्यान देने की बात ये है कि नींद को मौत का ही एक रूप माना जाता है। शे’र में ये रियायत भी ख़ूब है। मगर शे’र में जो परतें हैं उसकी तरफ़ पाठक का ध्यान तुरंत नहीं जाता। दरअसल ग़ालिब कहना चाहते हैं कि हालांकि अल्लाह ने मौत का एक दिन निर्धारित कर रखा है और मैं इस हक़ीक़त से वाक़िफ़ हूँ कि एक एक दिन मौत आही जाएगी फिर मौत के खटके से मुझे सारी रात नींद क्यों नहीं आती। अर्थात मौत का डर मुझे सोने क्यों नहीं देता।

शफ़क़ सुपुरी

सताइश की तमन्ना सिले की परवा

गर नहीं हैं मिरे अशआर में मअ'नी सही

कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है

पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए बने

इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं

पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की

कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब

गालियाँ खा के बे-मज़ा हुआ

था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ

उड़ने से पेश-तर भी मिरा रंग ज़र्द था

वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़

सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू क्या है

गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ माँग

यानी बग़ैर-ए-यक-दिल-ए-बे-मुद्दआ माँग

फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ख़ुदा

अफ़्सून-ए-इंतिज़ार तमन्ना कहें जिसे

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ

सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है

आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए

मुद्दआ अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का

बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात

सुनता नहीं हूँ बात मुकर्रर कहे बग़ैर

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'

शर्म तुम को मगर नहीं आती

मुज़्महिल हो गए क़वा ग़ालिब

वो अनासिर में ए'तिदाल कहाँ

एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब

ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़्गान-ए-यार था

ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है

हक़ मग़फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था

हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे

बे-सबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना

दे मुझ को शिकायत की इजाज़त कि सितमगर

कुछ तुझ को मज़ा भी मिरे आज़ार में आवे

अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग

हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव

बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में

फ़रमाँ-रवा-ए-किश्वर-ए-हिन्दुस्तान है

कोई वीरानी सी वीरानी है

दश्त को देख के घर याद आया

सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त

लेकिन ख़ुदा करे वो तिरा जल्वा-गाह हो

अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ कहो

जो मय नग़्मा को अंदोह-रुबा कहते हैं

फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं

फिर वही ज़िंदगी हमारी है

है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल

ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला

बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की

वो इक निगह कि ब-ज़ाहिर निगाह से कम है

उम्र भर देखा किए मरने की राह

मर गए पर देखिए दिखलाएँ क्या

गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए

जो लफ़्ज़ कि 'ग़ालिब' मिरे अशआर में आवे

जान तुम पर निसार करता हूँ

मैं नहीं जानता दुआ क्या है

तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन नदीम

मेरा सलाम कहियो अगर नामा-बर मिले

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया

वर्ना हम भी आदमी थे काम के

तमाशा कि महव-ए-आईना-दारी

तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं

हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे

बे-नियाज़ी तिरी आदत ही सही

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Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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