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जफ़ा पर शेर

मोहब्बत के क़िस्से और

महबूब के क़सीदे उर्दू शायरी में जितने आ’म हैं उतनी ही शोहरत महबूब की ज़ुल्म करने की आदत की भी है। आशिक़ दिल के हाथों मजबूर वह दीवाना होता है जो तमामतर जफ़ाओं और यातनाओं के बावजूद मोहब्बत से किनारा करने को तैयार नहीं। इन जफ़ाओं का तिलिस्म शायरों के सर चढ़ कर बोलता रहा है। जफ़ा शायरी के इसी रंग रूप से आशनाई कराने के लिए पेश है यह इन्तिख़ाबः

अदा आई जफ़ा आई ग़ुरूर आया हिजाब आया

हज़ारों आफ़तें ले कर हसीनों पर शबाब आया

नूह नारवी

की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा

हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशीमाँ होना

मिर्ज़ा ग़ालिब

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है

ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा

साहिर लुधियानवी

ऐसे बिगड़े कि फिर जफ़ा भी की

दुश्मनी का भी हक़ अदा हुआ

हसरत मोहानी

तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है

सीना किस का है मिरी जान जिगर किस का है

अमीर मीनाई

जब भी वालिद की जफ़ा याद आई

अपने दादा की ख़ता याद आई

मोहम्मद यूसुफ़ पापा

लुत्फ़ आने लगा जफ़ाओं में

वो कहीं मेहरबाँ हो जाए

अमीर मीनाई

क़ाएम है अब भी मेरी वफ़ाओं का सिलसिला

इक सिलसिला है उन की जफ़ाओं का सिलसिला

अमीता परसुराम मीता

पहले रग रग से मिरी ख़ून निचोड़ा उस ने

अब ये कहता है कि रंगत ही मिरी पीली है

मुज़फ़्फ़र वारसी

तुम तौबा करो जफ़ाओं से

हम वफ़ाओं से तौबा करते हैं

साहिर होशियारपुरी

जितनी वो मिरे हाल पे करते हैं जफ़ाएँ

आता है मुझे उन की मोहब्बत का यक़ीं और

अर्श मलसियानी

ज़ालिम जफ़ा जो चाहे सो कर मुझ पे तू वले

पछतावे फिर तू आप ही ऐसा कर कहीं

ख़्वाजा मीर दर्द

उन की जफ़ाओं पर भी वफ़ा का हुआ गुमाँ

अपनी वफ़ाओं को भी फ़रामोश कर दिया

हमीद जालंधरी

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