मोहम्मद यूसुफ़ पापा
नज़्म 12
अशआर 13
जब भी वालिद की जफ़ा याद आई
अपने दादा की ख़ता याद आई
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दुश्मनों की दुश्मनी मेरे लिए आसान थी
ख़र्च आया दोस्तों की मेज़बानी में बहुत
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अपने दम से है ज़माने में घोटालों का वजूद
हम जहाँ होंगे घोटाले ही घोटाले होंगे
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जब हुआ काले का गोरे से मिलाप
मिल गईं तारीकियाँ तनवीर से
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दूसरी ने जो सँभाली चप्पल
पहली बीवी की वफ़ा याद आई
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