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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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तग़ाफ़ुल पर शेर

तग़ाफ़ुल क्लासिकी उर्दू

शायरी के माशूक़ के आचरण का ख़ास हिस्सा है । वो आशिक़ के विरह की पीड़ा से परीचित होता है । वो आशिक़ की आहों और विलापों को सुनता है । लेकिन इन सब से अपनी बे-ख़बरी का दिखावा करता है । माशूक़ का ये आचरण आशिक़ के दुख और तकलीफ़ को और बढ़ाता है । आशिक़ अपने माशूक़ के तग़ाफ़ुल की शिकायत भी करता है । लेकिन माशूक़ पर इस का कोई असर नहीं होता । यहाँ प्रस्तुत शायरी में आशिक़-ओ-माशूक़ के इस आचरण के अलग-अलग रंगों को पढ़िए और उर्दू शायरी के इश्क़-रंग का आनंद लीजिए ।

हम ने माना कि तग़ाफ़ुल करोगे लेकिन

ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक

मिर्ज़ा ग़ालिब

इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक

इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

कभी यक-ब-यक तवज्जोह कभी दफ़अतन तग़ाफ़ुल

मुझे आज़मा रहा है कोई रुख़ बदल बदल कर

शकील बदायूनी

इस नहीं का कोई इलाज नहीं

रोज़ कहते हैं आप आज नहीं

दाग़ देहलवी

उस ने बारिश में भी खिड़की खोल के देखा नहीं

भीगने वालों को कल क्या क्या परेशानी हुई

जमाल एहसानी

ये अदा-ए-बे-नियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक

मगर ऐसी बे-रुख़ी क्या कि सलाम तक पहुँचे

शकील बदायूनी

सुन के सारी दास्तान-ए-रंज-ओ-ग़म

कह दिया उस ने कि फिर हम क्या करें

बेख़ुद देहलवी

हर एक बात के यूँ तो दिए जवाब उस ने

जो ख़ास बात थी हर बार हँस के टाल गया

अहमद राही

तुम्हें याद ही आऊँ ये है और बात वर्ना

मैं नहीं हूँ दूर इतना कि सलाम तक पहुँचे

कलीम आजिज़

बा'द मरने के मिरी क़ब्र पे आया 'ग़ाफ़िल'

याद आई मिरे ईसा को दवा मेरे बा'द

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल

किस मुँह से करें उन के तग़ाफ़ुल की शिकायत

ख़ुद हम को मोहब्बत का सबक़ याद नहीं है

हफ़ीज़ बनारसी

फिर और तग़ाफ़ुल का सबब क्या है ख़ुदाया

मैं याद आऊँ उन्हें मुमकिन ही नहीं है

हसरत मोहानी

उस जगह जा के वो बैठा है भरी महफ़िल में

अब जहाँ मेरे इशारे भी नहीं जा सकते

फ़रहत एहसास

उस ने सुन कर बात मेरी टाल दी

उलझनों में और उलझन डाल दी

अज़ीज़ हैदराबादी

तुम नज़र क्यूँ चुराए जाते हो

जब तुम्हें हम सलाम करते हैं

आबरू शाह मुबारक

आँख चुरा के जाने वाले

हम भी थे कभी तिरी नज़र में

जलील मानिकपूरी

हम तिरी राह में जूँ नक़्श-ए-क़दम बैठे हैं

तू तग़ाफ़ुल किए यार चला जाता है

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

उन्हें तो सितम का मज़ा पड़ गया है

कहाँ का तजाहुल कहाँ का तग़ाफ़ुल

बेख़ुद देहलवी

पढ़े जाओ 'बेख़ुद' ग़ज़ल पर ग़ज़ल

वो बुत बन गए हैं सुने जाएँगे

बेख़ुद देहलवी

सुनाते हो किसे अहवाल 'माहिर'

वहाँ तो मुस्कुराया जा रहा है

माहिर-उल क़ादरी

'वहशत' उस बुत ने तग़ाफ़ुल जब किया अपना शिआर

काम ख़ामोशी से मैं ने भी लिया फ़रियाद का

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

तुम्हारे दिल में क्या ना-मेहरबानी गई ज़ालिम

कि यूँ फेंका जुदा मुझ से फड़कती मछली को जल सीं

आबरू शाह मुबारक

मैं दर-गुज़रा साहिब-सलामत से भी

ख़ुदा के लिए इतना बरहम हो

ख़्वाजा अमीनुद्दीन अमीन
बोलिए