ख़्वाजा अमीनुद्दीन अमीन
ग़ज़ल 5
अशआर 3
सुब्ह गर सुब्ह-ए-क़यामत हो तो कुछ पर्वा नहीं
हिज्र की जब रात ऐसी बे-क़रारी में कटी
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गालियाँ ग़ैर से सुनाते हो
हाँ मियाँ और तुम से क्या होगा
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मैं दर-गुज़रा साहिब-सलामत से भी
ख़ुदा के लिए इतना बरहम न हो
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