सूरत शायरी पर शेर
शायरों ने महबूब के चेहरे
और उन की सूरत की मुबालिग़ा आमेज़ तारीफ़ें की हैं और इस बाब में अपनी तख़्लीक़ी क़ुव्वत का नए नए तरीक़ों से इज़हार किया है। महबूब के चेहरे की ख़ूबसूरती का ये बयानिया हम सब के काम का है। चेहरे को बुनियाद बना कर और भी कई तरह के मौज़ूआत और मज़ामीन पैदा किए गए है।
तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत
हम जहाँ में तिरी तस्वीर लिए फिरते हैं
ऐ सनम जिस ने तुझे चाँद सी सूरत दी है
उसी अल्लाह ने मुझ को भी मोहब्बत दी है
वो चेहरा किताबी रहा सामने
बड़ी ख़ूबसूरत पढ़ाई हुई
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता
अजब तेरी है ऐ महबूब सूरत
नज़र से गिर गए सब ख़ूबसूरत
तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है
तेरे आगे चाँद पुराना लगता है
शबनम के आँसू फूल पर ये तो वही क़िस्सा हुआ
आँखें मिरी भीगी हुई चेहरा तिरा उतरा हुआ
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
आईना ग़ौर से तू ने कभी देखा ही नहीं
अच्छी सूरत भी क्या बुरी शय है
जिस ने डाली बुरी नज़र डाली
अब उस की शक्ल भी मुश्किल से याद आती है
वो जिस के नाम से होते न थे जुदा मिरे लब
भूल गई वो शक्ल भी आख़िर
कब तक याद कोई रहता है
मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले किसी ज़माने में
उन की सूरत देख ली ख़ुश हो गए
उन की सीरत से हमें क्या काम है
रहता था सामने तिरा चेहरा खुला हुआ
पढ़ता था मैं किताब यही हर क्लास में
इक रात चाँदनी मिरे बिस्तर पे आई थी
मैं ने तराश कर तिरा चेहरा बना दिया
चेहरा खुली किताब है उनवान जो भी दो
जिस रुख़ से भी पढ़ोगे मुझे जान जाओगे
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर
बड़े सीधे-साधे बड़े भोले-भाले
कोई देखे इस वक़्त चेहरा तुम्हारा
ख़्वाबों के उफ़ुक़ पर तिरा चेहरा हो हमेशा
और मैं उसी चेहरे से नए ख़्वाब सजाऊँ
भुला दीं हम ने किताबें कि उस परी-रू के
किताबी चेहरे के आगे किताब है क्या चीज़
उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
उस एक शख़्स में किस किस को देखता था मैं
तू ने सूरत न दिखाई तो ये सूरत होगी
लोग देखेंगे तमाशा तिरे दीवाने का
किताब खोल के देखूँ तो आँख रोती है
वरक़ वरक़ तिरा चेहरा दिखाई देता है
आ कि मैं देख लूँ खोया हुआ चेहरा अपना
मुझ से छुप कर मिरी तस्वीर बनाने वाले
इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए
आप को चेहरे से भी बीमार होना चाहिए
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
हमारी सब किताबों में इक ऐसा बाब रहता था
लम्हा लम्हा मुझे वीरान किए देता है
बस गया मेरे तसव्वुर में ये चेहरा किस का
हम किसी बहरूपिए को जान लें मुश्किल नहीं
उस को क्या पहचानिये जिस का कोई चेहरा न हो
अभी तो और भी चेहरे तुम्हें पुकारेंगे
अभी वो और भी चेहरों में मुंतक़िल होगा
उस एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे हैं
हज़ार चेहरों का वो क़ाफ़िला सा लगता है
बनाता हूँ मैं तसव्वुर में उस का चेहरा मगर
हर एक बार नई काएनात बनती है
अभी तो और भी चेहरे तुम्हें पुकारेंगे
अभी वो और भी चेहरों में मुंतक़िल होगा
चूम लूँ मैं वरक़ वरक़ उस का
तेरे चेहरे से जो किताब मिले
मलूँ हों ख़ाक जूँ आईना मुँह पर
तिरी सूरत मुझे आती है जब याद
कुछ साफ़ उस का चेहरा मतलब नहीं बताता
यूँ था कि जैसे मैं ने क़ुरआँ में फ़ाल देखा