दीदार पर शेर
इश्क़ बहुत सारी ख़्वाहिशों
का ख़ूबसूरत गुलदस्ता है। दीदार, तमन्ना का ऐसा ही एक हसीन फूल है जिसकी ख़ुश्बू आशिक़ को बेचैन किए रखती है। महबूब को देख लेने भर का असर आशिक़ के दिल पर क्या होता है यह शायर से बेहतर भला कौन जान सकता है। आँखें खिड़की, दरवाज़े और रास्ते से हटने का नाम न लें ऐसी शदीद ख़्वाहिश होती है दीदार की। तो आइये इसी दीदार शायरी से कुछ चुनिंदा अशआर की झलक देखते हैः
देखने के लिए सारा आलम भी कम
चाहने के लिए एक चेहरा बहुत
कुछ नज़र आता नहीं उस के तसव्वुर के सिवा
हसरत-ए-दीदार ने आँखों को अंधा कर दिया
अब वही करने लगे दीदार से आगे की बात
जो कभी कहते थे बस दीदार होना चाहिए
मेरी आँखें और दीदार आप का
या क़यामत आ गई या ख़्वाब है
कहते हैं ईद है आज अपनी भी ईद होती
हम को अगर मयस्सर जानाँ की दीद होती
देखा नहीं वो चाँद सा चेहरा कई दिन से
तारीक नज़र आती है दुनिया कई दिन से
तुम अपने चाँद तारे कहकशाँ चाहे जिसे देना
मिरी आँखों पे अपनी दीद की इक शाम लिख देना
ज़ाहिर की आँख से न तमाशा करे कोई
हो देखना तो दीदा-ए-दिल वा करे कोई
तू सामने है तो फिर क्यूँ यक़ीं नहीं आता
ये बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं
सुना है हश्र में हर आँख उसे बे-पर्दा देखेगी
मुझे डर है न तौहीन-ए-जमाल-ए-यार हो जाए
हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
तुम्हारे देखने वालों में यार हम भी हैं
दीदार की तलब के तरीक़ों से बे-ख़बर
दीदार की तलब है तो पहले निगाह माँग
न वो सूरत दिखाते हैं न मिलते हैं गले आ कर
न आँखें शाद होतीं हैं न दिल मसरूर होता है
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर
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वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी की निगाह में
अब और देर न कर हश्र बरपा करने में
मिरी नज़र तिरे दीदार को तरसती है
जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर
तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए
तिरा दीदार हो हसरत बहुत है
चलो कि नींद भी आने लगी है
मिरा जी तो आँखों में आया ये सुनते
कि दीदार भी एक दिन आम होगा
हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
ईद है और हम को ईद नहीं
कासा-ए-चश्म ले के जूँ नर्गिस
हम ने दीदार की गदाई की
इस क़मर को कभी तो देखेंगे
तीस दिन होते हैं महीने के
उठ ऐ नक़ाब-ए-यार कि बैठे हैं देर से
कितने ग़रीब दीदा-ए-पुर-नम लिए हुए
आईना कभी क़ाबिल-ए-दीदार न होवे
गर ख़ाक के साथ उस को सरोकार न होवे
जैसे जैसे दर-ए-दिलदार क़रीब आता है
दिल ये कहता है कि पहुँचूँ मैं नज़र से पहले
आँख उठा कर उसे देखूँ हूँ तो नज़रों में मुझे
यूँ जताता है कि क्या तुझ को नहीं डर मेरा
'दर्द' के मिलने से ऐ यार बुरा क्यूँ माना
उस को कुछ और सिवा दीद के मंज़ूर न था
इलाही क्या खुले दीदार की राह
उधर दरवाज़े बंद आँखें इधर बंद
आफ़रीं तुझ को हसरत-ए-दीदार
चश्म-ए-तर से ज़बाँ का काम लिया
तिरी पहली दीद के साथ ही वो फ़ुसूँ भी था
तुझे देख कर तुझे देखना मुझे आ गया
टूटें वो सर जिस में तेरी ज़ुल्फ़ का सौदा नहीं
फूटें वो आँखें कि जिन को दीद का लपका नहीं
मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी
जल्वों के इज़दिहाम ने हैराँ बना दिया