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जुरअत क़लंदर बख़्श

1748 - 1809 | लखनऊ, भारत

अपनी शायरी में महबूब के साथ मामला-बंदी के मज़मून के लिए मशहूर, नौजवानी में नेत्रहीन हो गए

अपनी शायरी में महबूब के साथ मामला-बंदी के मज़मून के लिए मशहूर, नौजवानी में नेत्रहीन हो गए

जुरअत क़लंदर बख़्श

ग़ज़ल 78

अशआर 132

इलाही क्या इलाक़ा है वो जब लेता है अंगड़ाई

मिरे सीने में सब ज़ख़्मों के टाँके टूट जाते हैं

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मिल गए थे एक बार उस के जो मेरे लब से लब

'उम्र भर होंटों पे अपने मैं ज़बाँ फेरा किया

कैफ़ियत महफ़िल-ए-ख़ूबाँ की उस बिन पूछो

उस को देखूँ तो फिर दे मुझे दिखलाई क्या

भरी जो हसरत-ओ-यास अपनी गुफ़्तुगू में है

ख़ुदा ही जाने कि बंदा किस आरज़ू में है

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अहवाल क्या बयाँ मैं करूँ हाए तबीब

है दर्द उस जगह कि जहाँ का नहीं इलाज

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क़ितआ 1

 

क़िस्सा 1

 

पुस्तकें 9

 

चित्र शायरी 3

 

ऑडियो 6

ऐ दिला हम हुए पाबंद-ए-ग़म-ए-यार कि तू

इतना बतला मुझे हरजाई हूँ मैं यार कि तू

ऐ दिला हम हुए पाबंद-ए-ग़म-ए-यार कि तू

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