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ग़म पर शेर

ग़म हमारी ज़िंदगी का एक

अनिवार्य रंग है और इस को कई तरह से स्थायित्व हासिल है । हालाँकि ख़ुशी भी हमारी ज़िंदगी का ही एक रंग है लेकिन इस को उस तरह से स्थायित्व हासिल नहीं है । उर्दू शायरी में ग़म-ए-दौराँ, ग़म-ए-जानाँ, ग़म-ए-इश्क़, गम-ए-रोज़गार जैसे शब्द-संरचना या मिश्रित शब्द-संरचना का प्रयोग अधिक होता है । उर्दू शायरी का ये रूप वास्तव में ज़िंदगी का एक दुखद वर्णन है । विरह या जुदाई सिर्फ़ आशिक़ का अपने माशूक़ से भौतिक-सुख या शारीरिक स्पर्श का न होना ही नहीं बल्कि इंसान की बद-नसीबी / महरूमी का रूपक है हमारा यह चयन ग़म और दुख के व्यापक क्षेत्र की एक सैर है।

उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ

अब तो ये बातें भी दिल हो गईं आई गई

साहिर लुधियानवी

दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से

कैसी तन्हाई टपकती है दर दीवार से

अकबर हैदराबादी

सिवाए रंज कुछ हासिल नहीं है इस ख़राबे में

ग़नीमत जान जो आराम तू ने कोई दम पाया

हैदर अली आतिश

दौलत-ए-ग़म भी ख़स-ओ-ख़ाक-ए-ज़माना में गई

तुम गए हो तो मह साल कहाँ ठहरे हैं

महमूद अयाज़

ये किस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी हम को

हँसी लबों पे है सीने में ग़म का दफ़्तर है

हफ़ीज़ बनारसी

ग़म से बिखरा पाएमाल हुआ

मैं तो ग़म से ही बे-मिसाल हुआ

हसन नईम

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे

तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे

वसीम बरेलवी

ग़म की दुनिया रहे आबाद 'शकील'

मुफ़लिसी में कोई जागीर तो है

शकील बदायूनी

ग़म दे गया नशात-ए-शनासाई ले गया

वो अपने साथ अपनी मसीहाई ले गया

जुनैद हज़ीं लारी

मुसीबत और लम्बी ज़िंदगानी

बुज़ुर्गों की दुआ ने मार डाला

मुज़्तर ख़ैराबादी

वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या

जिस को आग़ोश-ए-मोहब्बत कभी हासिल हुआ

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

ये ग़म-कदा है इस में 'मुबारक' ख़ुशी कहाँ

ग़म को ख़ुशी बना कोई पहलू निकाल के

मुबारक अज़ीमाबादी

वो तअल्लुक़ है तिरे ग़म से कि अल्लाह अल्लाह

हम को हासिल हो ख़ुशी भी तो गवारा करें

अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी

ग़म-ए-ज़िंदगी हो नाराज़

मुझ को आदत है मुस्कुराने की

अब्दुल हमीद अदम

बेदर्द मुझ से शरह-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी पूछ

काफ़ी है इस क़दर कि जिए जा रहा हूँ मैं

हादी मछलीशहरी

ग़म-ए-हयात ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में

हम ऐसे लोग तो रंज-ओ-मलाल से भी गए

अज़ीज़ हामिद मदनी

शर्बत का घूँट जान के पीता हूँ ख़ून-ए-दिल

ग़म खाते खाते मुँह का मज़ा तक बिगड़ गया

यगाना चंगेज़ी

दिल गया रौनक़-ए-हयात गई

ग़म गया सारी काएनात गई

जिगर मुरादाबादी

ग़म-ए-जहान ग़म-ए-यार दो किनारे हैं

उधर जो डूबे वो अक्सर इधर निकल आए

अरशद अब्दुल हमीद

हमें दुनिया में अपने ग़म से मतलब

ज़माने की ख़ुशी से वास्ता क्या

अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी

जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी

जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

जम्अ' हम ने किया है ग़म दिल में

इस का अब सूद खाए जाएँगे

जौन एलिया

'अज़ीम लोग थे टूटे तो इक वक़ार के साथ

किसी से कुछ कहा बस उदास रहने लगे

इक़बाल अशहर

हाए कितना लतीफ़ है वो ग़म

जिस ने बख़्शा है ज़िंदगी का शुऊर

चंद्र प्रकाश जौहर बिजनौरी

ग़मों पर मुस्कुरा लेते हैं लेकिन मुस्कुरा कर हम

ख़ुद अपनी ही नज़र में चोर से मालूम होते हैं

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

अब कारगह-ए-दहर में लगता है बहुत दिल

दोस्त कहीं ये भी तिरा ग़म तो नहीं है

मजरूह सुल्तानपुरी

ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म

ये ग़म होगा तो कितने ग़म होंगे

हफ़ीज़ होशियारपुरी

उल्फ़त का है मज़ा कि 'असर' ग़म भी साथ हों

तारीकियाँ भी साथ रहें रौशनी के साथ

असर अकबराबादी

तुम से अब क्या कहें वो चीज़ है दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़

कि छुपाए छुपे और दिखाए बने

दत्तात्रिया कैफ़ी

ग़मों पर मुस्कुरा लेते हैं लेकिन मुस्कुरा कर हम

ख़ुद अपनी ही नज़र में चोर से मालूम होते हैं

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

फ़िक्र-ए-जहान दर्द-ए-मोहब्बत फ़िराक़-ए-यार

क्या कहिए कितने ग़म हैं मिरी ज़िंदगी के साथ

असर अकबराबादी

अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती

किनारों ने डुबोया है मुझे इस बात का ग़म है

दिवाकर राही

हम को किस के ग़म ने मारा ये कहानी फिर सही

किस ने तोड़ा दिल हमारा ये कहानी फिर सही

मसरूर अनवर

फिर मिरी आस बढ़ा कर मुझे मायूस कर

हासिल-ए-ग़म को ख़ुदा-रा ग़म-ए-हासिल बना

हिमायत अली शाएर

ग़म-ए-दिल अब किसी के बस का नहीं

क्या दवा क्या दुआ करे कोई

हादी मछलीशहरी

सारी दुनिया के रंज-ओ-ग़म दे कर

मुस्कुराने की बात करते हो

जावेद क़ुरैशी

लज़्ज़त-ए-ग़म तो बख़्श दी उस ने

हौसले भी 'अदम' दिए होते

अब्दुल हमीद अदम

ग़म है अब ख़ुशी है उम्मीद है यास

सब से नजात पाए ज़माने गुज़र गए

ख़ुमार बाराबंकवी

हर तफ़्सील में जाने वाला ज़ेहन सवाल की ज़द पर है

हर तशरीह के पीछे है अंजाम से डर जाने का ग़म

अज़्म बहज़ाद

हाए वो राज़-ए-ग़म कि जो अब तक

तेरे दिल में मिरी निगाह में है

जिगर मुरादाबादी

इक इक क़दम पे रक्खी है यूँ ज़िंदगी की लाज

ग़म का भी एहतिराम किया है ख़ुशी के साथ

कैफ़ी बिलग्रामी

अरे आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है

ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ

साहिर लुधियानवी

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था

दिल भी या-रब कई दिए होते

मिर्ज़ा ग़ालिब

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो

नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

अहमद फ़राज़

यही है दौर-ए-ग़म-ए-आशिक़ी तो क्या होगा

इसी तरह से कटी ज़िंदगी तो क्या होगा

फ़ारिग़ बुख़ारी

शिद्दत-ए-ग़म से कोई ग़म भी नहीं हो पाया

जाने वाले तिरा मातम भी नहीं हो पाया

क़मर अब्बास क़मर

ये ग़म नहीं है कि हम दोनों एक हो सके

ये रंज है कि कोई दरमियान में भी था

जमाल एहसानी

अब संग-बारियों का अमल सर्द पड़ गया

अब उस तरफ़ भी रंज मिरे टूटने का है

अक़ील नोमानी

एक वो हैं कि जिन्हें अपनी ख़ुशी ले डूबी

एक हम हैं कि जिन्हें ग़म ने उभरने दिया

आज़ाद गुलाटी

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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