मंज़र लखनवी
ग़ज़ल 21
अशआर 60
दर्द हो दिल में तो दवा कीजे
और जो दिल ही न हो तो क्या कीजे
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ग़म में कुछ ग़म का मशग़ला कीजे
दर्द की दर्द से दवा कीजे
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तफ़रीक़ हुस्न-ओ-इश्क़ के अंदाज़ में न हो
लफ़्ज़ों में फ़र्क़ हो मगर आवाज़ में न हो
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जाने वाले जा ख़ुदा हाफ़िज़ मगर ये सोच ले
कुछ से कुछ हो जाएगी दीवानगी तेरे बग़ैर
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ग़ुस्सा क़ातिल का न बढ़ता है न कम होता है
एक सर है कि वो हर रोज़ क़लम होता है
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