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विदाई पर शेर

किसी को रुख़्सत करते

हुए हम जिन कैफ़ियतों से गुज़रते हैं, उन्हें महसूस तो किया जा सकता है लेकिन उन का इज़हार और उन्हें ज़बान देना एक मुश्किल काम है । सिर्फ़ रचनात्मक-अभिव्यक्ति ही इन कैफ़ियतों को पेश कर कर सकती है । यहाँ अलविदा'अ और रुख़्सत की कैफ़ियतों से सर-शार शाइरी का संकलन प्रस्तुत किया जा रहा है ।

अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'

फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया

मीर तक़ी मीर

जाते जाते उन का रुकना और मुड़ कर देखना

जाग उट्ठा आह मेरा दर्द-ए-तन्हाई बहुत

लुत्फ़ हारूनी

ये एक पेड़ है इस से मिल के रो लें हम

यहाँ से तेरे मिरे रास्ते बदलते हैं

बशीर बद्र

जाने वाले को कहाँ रोक सका है कोई

तुम चले हो तो कोई रोकने वाला भी नहीं

असलम अंसारी

जादा जादा छोड़ जाओ अपनी यादों के नुक़ूश

आने वाले कारवाँ के रहनुमा बन कर चलो

अज़ीज़ बघरवी

तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है

तुम्हारे बा'द ये मौसम बहुत सताएगा

बशीर बद्र

वो अलविदा'अ का मंज़र वो भीगती पलकें

पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है

शकेब जलाली

अब मुझ को रुख़्सत होना है अब मेरा हार-सिंघार करो

क्यूँ देर लगाती हो सखियो जल्दी से मुझे तय्यार करो

शबनम शकील

जाने वाले से मुलाक़ात होने पाई

दिल की दिल में ही रही बात होने पाई

शकील बदायूनी

उस को रुख़्सत तो किया था मुझे मालूम था

सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

निदा फ़ाज़ली

क्यूँ गिरफ़्ता-दिल नज़र आती है शाम-ए-फ़िराक़

हम जो तेरे नाज़ उठाने के लिए मौजूद हैं

सरवत हुसैन

दुख के सफ़र पे दिल को रवाना तो कर दिया

अब सारी उम्र हाथ हिलाते रहेंगे हम

अहमद मुश्ताक़

ये घर मिरा गुलशन है गुलशन का ख़ुदा हाफ़िज़

अल्लाह निगहबान नशेमन का ख़ुदा हाफ़िज़

अज्ञात

हम ने माना इक इक दिन लौट के तू जाएगा

लेकिन तुझ बिन उम्र जो गुज़री कौन उसे लौटाएगा

अख़्तर सईद ख़ान

कलेजा रह गया उस वक़्त फट कर

कहा जब अलविदा उस ने पलट कर

पवन कुमार

आबदीदा हो के वो आपस में कहना अलविदा'अ

उस की कम मेरी सिवा आवाज़ भर्राई हुई

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

अजीब होते हैं आदाब-ए-रुख़स्त-ए-महफ़िल

कि वो भी उठ के गया जिस का घर था कोई

सहर अंसारी

उस गली ने ये सुन के सब्र किया

जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं

जौन एलिया

तुम इसी मोड़ पर हमें मिलना

लौट कर हम ज़रूर आएँगे

नज़र एटवी

आई होगी तो मौत आएगी

तुम तो जाओ मिरा ख़ुदा हाफ़िज़

नातिक़ गुलावठी

उस से मिले ज़माना हुआ लेकिन आज भी

दिल से दुआ निकलती है ख़ुश हो जहाँ भी हो

मोहम्मद अल्वी

तमाम-शहर जिसे छोड़ने को आया है

वो शख़्स कितना अकेला सफ़र पे निकलेगा

कैफ़ी विजदानी

ये हम ही जानते हैं जुदाई के मोड़ पर

इस दिल का जो भी हाल तुझे देख कर हुआ

नोशी गिलानी

तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा

मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लाएगा

बशीर बद्र

मैं जानता हूँ मिरे बा'द ख़ूब रोएगा

रवाना कर तो रहा है वो हँसते हँसते मुझे

अमीन शैख़

आँख से दूर सही दिल से कहाँ जाएगा

जाने वाले तू हमें याद बहुत आएगा

उबैदुल्लाह अलीम

उसे जाने की जल्दी थी सो मैं आँखों ही आँखों में

जहाँ तक छोड़ सकता था वहाँ तक छोड़ आया हूँ

अज्ञात

चमन से रुख़्सत-ए-गुल है लौटने के लिए

तो बुलबुलों का तड़पना यहाँ पे जाएज़ है

अज्ञात

तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी

और तिरी बज़्म से अब कोई उठा चाहता है

परवीन शाकिर

रेल देखी है कभी सीने पे चलने वाली

याद तो होंगे तुझे हाथ हिलाते हुए हम

नोमान शौक़

गूँजते रहते हैं अल्फ़ाज़ मिरे कानों में

तू तो आराम से कह देता है अल्लाह-हाफ़िज़

अज्ञात

जाते हो ख़ुदा-हाफ़िज़ हाँ इतनी गुज़ारिश है

जब याद हम जाएँ मिलने की दुआ करना

जलील मानिकपूरी

छोड़ने मैं नहीं जाता उसे दरवाज़े तक

लौट आता हूँ कि अब कौन उसे जाता देखे

शहज़ाद अहमद

जाने वाले जा ख़ुदा हाफ़िज़ मगर ये सोच ले

कुछ से कुछ हो जाएगी दीवानगी तेरे बग़ैर

मंज़र लखनवी

लगा जब यूँ कि उकताने लगा है दिल उजालों से

उसे महफ़िल से उस की अलविदा'अ कह कर निकल आए

परविंदर शोख़

तुम सुनो या सुनो हाथ बढ़ाओ बढ़ाओ

डूबते डूबते इक बार पुकारेंगे तुम्हें

इरफ़ान सिद्दीक़ी

एक दिन कहना ही था इक दूसरे को अलविदा'अ

आख़िरश 'सालिम' जुदा इक बार तो होना ही था

सलीम शुजाअ अंसारी

वक़्त-ए-रुख़्सत अलविदा'अ का लफ़्ज़ कहने के लिए

वो तिरे सूखे लबों का थरथराना याद है

अज्ञात

बर्क़ क्या शरारा क्या रंग क्या नज़ारा क्या

हर दिए की मिट्टी में रौशनी तुम्हारी है

अज्ञात

वक़्त-ए-रुख़्सत तिरी आँखों का वो झुक सा जाना

इक मुसाफ़िर के लिए ज़ाद-ए-सफ़र है दोस्त

अज्ञात

अब के जाते हुए इस तरह किया उस ने सलाम

डूबने वाला कोई हाथ उठाए जैसे

अज्ञात

याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे

तू ख़ामोश खड़ा था लेकिन बातें करता था काजल

नासिर काज़मी

उस से मिलने की ख़ुशी ब'अद में दुख देती है

जश्न के ब'अद का सन्नाटा बहुत खलता है

मुईन शादाब

अब तुम कभी आओगे यानी कभी कभी

रुख़्सत करो मुझे कोई वादा किए बग़ैर

जौन एलिया

अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जाएगा

मगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा

बशीर बद्र

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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