दुश्मन पर शेर
हम आम तौर पर दुश्मन
से दुश्मनी के जज़्बे से ही वाबस्ता होते हैं लेकिन शायरी में बात इस से बहुत आगे की है। एक तख़्लीक़-कार दुश्मन और दुश्मनी को किस तौर पर जीता है, उस का दुश्मन उस के लिए किस क़िस्म के दुख और किस क़िस्म की सहूलतें पैदा करता है इस का एक दिल-चस्प बयान हमारा ये शेरी इन्तिख़ाब है। हमारे इस इन्तिख़ाब को पढ़िए और अपने दुश्मनों से अपने रिश्तों पर अज़-सर-ए-नौ ग़ौर कीजिए।
दुश्मनों की जफ़ा का ख़ौफ़ नहीं
दोस्तों की वफ़ा से डरते हैं
कू-ए-जानाँ में न ग़ैरों की रसाई हो जाए
अपनी जागीर ये या-रब न पराई हो जाए
आ गया 'जौहर' अजब उल्टा ज़माना क्या कहें
दोस्त वो करते हैं बातें जो अदू करते नहीं
अजब हरीफ़ था मेरे ही साथ डूब गया
मिरे सफ़ीने को ग़र्क़ाब देखने के लिए
'अर्श' किस दोस्त को अपना समझूँ
सब के सब दोस्त हैं दुश्मन की तरफ़
ख़ुदा के वास्ते मौक़ा न दे शिकायत का
कि दोस्ती की तरह दुश्मनी निभाया कर
जो दोस्त हैं वो माँगते हैं सुल्ह की दुआ
दुश्मन ये चाहते हैं कि आपस में जंग हो
ये दिल लगाने में मैं ने मज़ा उठाया है
मिला न दोस्त तो दुश्मन से इत्तिहाद किया
दुश्मनों से प्यार होता जाएगा
दोस्तों को आज़माते जाइए
दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर
दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा
दिन एक सितम एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो दुश्मन को भी तुम मात करो हो
दोस्त हर ऐब छुपा लेते हैं
कोई दुश्मन भी तिरा है कि नहीं
मैं अपने दुश्मनों का किस क़दर मम्नून हूँ 'अनवर'
कि उन के शर से क्या क्या ख़ैर के पहलू निकलते हैं
दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है
दोस्तों ने भी क्या कमी की है
आज खुला दुश्मन के पीछे दुश्मन थे
और वो लश्कर इस लश्कर की ओट में था
तरतीब दे रहा था मैं फ़हरिस्त-ए-दुश्मनान
यारों ने इतनी बात पे ख़ंजर उठा लिया
दुश्मन मुझ पर ग़ालिब भी आ सकता है
हार मिरी मजबूरी भी हो सकती है
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो
ऐ दोस्त तुझ को रहम न आए तो क्या करूँ
दुश्मन भी मेरे हाल पे अब आब-दीदा है
दुश्मन से ऐसे कौन भला जीत पाएगा
जो दोस्ती के भेस में छुप कर दग़ा करे
दुश्मनों से पशेमान होना पड़ा है
दोस्तों का ख़ुलूस आज़माने के बाद
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन
हुस्न आईना फ़ाश करता है
ऐसे दुश्मन को संगसार करो
मैं आ कर दुश्मनों में बस गया हूँ
यहाँ हमदर्द हैं दो-चार मेरे
दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए
मुझे दुश्मन से अपने इश्क़ सा है
मैं तन्हा आदमी की दोस्ती हूँ
मेरे दुश्मन न मुझ को भूल सके
वर्ना रखता है कौन किस को याद
दोस्तों और दुश्मनों में किस तरह तफ़रीक़ हो
दोस्तों और दुश्मनों की बे-रुख़ी है एक सी
उस के होने से हुई है अपने होने की ख़बर
कोई दुश्मन से ज़ियादा लाएक़-ए-इज़्ज़त नहीं
दोस्ती की तुम ने दुश्मन से अजब तुम दोस्त हो
मैं तुम्हारी दोस्ती में मेहरबाँ मारा गया
मिरे हरीफ़ मिरी यक्का-ताज़ियों पे निसार
तमाम उम्र हलीफ़ों से जंग की मैं ने
कुछ समझ कर उस मह-ए-ख़ूबी से की थी दोस्ती
ये न समझे थे कि दुश्मन आसमाँ हो जाएगा
दुनिया में हम रहे तो कई दिन प इस तरह
दुश्मन के घर में जैसे कोई मेहमाँ रहे
मौत ही इंसान की दुश्मन नहीं
ज़िंदगी भी जान ले कर जाएगी
बहारों की नज़र में फूल और काँटे बराबर हैं
मोहब्बत क्या करेंगे दोस्त दुश्मन देखने वाले
उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा