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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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मजबूरी पर शेर

मजबूरी ज़िंदगी में तसलसुल

के साथ पेश आने वाली एक सूरत-ए-हाल है जिस में इंसान की जो थोड़ी बहोत ख़ुद-मुख़्तारियत है वो भी ख़त्म हो जाती और इंसान पूरी तरह से मजबूर हो जाता है और यहीं से वो शायरी पैदा होती है जिस में बाज़ मर्तबा एहतिजाज भी होता है और बाज़ मर्तबा हालात के मुक़ाबले में सिपर अंदाज़ होने की कैफ़ियत भी। हम इस तरह के शेरों का एक छोटा सा इंतिख़ाब पेश कर रहे हैं।

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी

यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

बशीर बद्र

कुर्सी है तुम्हारा ये जनाज़ा तो नहीं है

कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते

इरतिज़ा निशात

तेरी मजबूरियाँ दुरुस्त मगर

तू ने वादा किया था याद तो कर

नासिर काज़मी

ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ मआज़-अल्लाह

तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं

असरार-उल-हक़ मजाज़

ज़िंदगी है अपने क़ब्ज़े में अपने बस में मौत

आदमी मजबूर है और किस क़दर मजबूर है

अहमद आमेठवी

हाए रे मजबूरियाँ महरूमियाँ नाकामियाँ

इश्क़ आख़िर इश्क़ है तुम क्या करो हम क्या करें

जिगर मुरादाबादी

मिरी मजबूरियाँ क्या पूछते हो

कि जीने के लिए मजबूर हूँ मैं

हफ़ीज़ जालंधरी

इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी

कि हम ने आह तो की उन से आह भी हुई

जिगर मुरादाबादी

एहसान ज़िंदगी पे किए जा रहे हैं हम

मन तो नहीं है फिर भी जिए जा रहे हैं हम

इम्तियाज़ ख़ान

हाए 'सीमाब' उस की मजबूरी

जिस ने की हो शबाब में तौबा

सीमाब अकबराबादी

ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं

हाए इस क़ैद को ज़ंजीर भी दरकार नहीं

फ़ानी बदायुनी

क्या मस्लहत-शनास था वो आदमी 'क़तील'

मजबूरियों का जिस ने वफ़ा नाम रख दिया

क़तील शिफ़ाई

वहशतें इश्क़ और मजबूरी

क्या किसी ख़ास इम्तिहान में हूँ

ख़ुर्शीद रब्बानी

जो कुछ पड़ती है सर पर सब उठाता है मोहब्बत में

जहाँ दिल गया फिर आदमी मजबूर होता है

लाला माधव राम जौहर

मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा

मिरे लिए तो कोई और रास्ता भी नहीं

सऊद उस्मानी

मैं ने सामान-ए-सफ़र बाँध के फिर खोल दिया

एक तस्वीर ने देखा मुझे अलमारी से

अज्ञात

न-जाने कौन सी मजबूरियाँ हैं जिन के लिए

ख़ुद अपनी ज़ात से इंकार करना पड़ता है

अतहर नासिक

आज़ादियों के शौक़ हवस ने हमें 'अदील'

इक अजनबी ज़मीन का क़ैदी बना दिया

अदील ज़ैदी

दुश्मन मुझ पर ग़ालिब भी सकता है

हार मिरी मजबूरी भी हो सकती है

बेदिल हैदरी

रस्म-ओ-रिवाज छोड़ के सब गए यहाँ

रक्खी हुई हैं ताक़ में अब ग़ैरतें तमाम

अदील ज़ैदी

पर कटे पंछियों से पूछते हो

तुम में उड़ने का हौसला है क्या

नादिम नदीम
बोलिए