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Jaleel Manikpuri's Photo'

जलील मानिकपूरी

1866 - 1946 | हैदराबाद, भारत

सबसे लोकप्रिय उत्तर क्लासिकी शायरों में प्रमुख/अमीर मीनाई के शार्गिद/दाग़ देहलवी के बाद हैदराबाद के राज-कवि

सबसे लोकप्रिय उत्तर क्लासिकी शायरों में प्रमुख/अमीर मीनाई के शार्गिद/दाग़ देहलवी के बाद हैदराबाद के राज-कवि

जलील मानिकपूरी के शेर

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ऐसे छुपने से छुपना ही था बेहतर तेरा

तू है पर्दे में मगर ज़िक्र है घर घर तेरा

बू-ए-गुल था मैं हाथ क्या आता

कितने सय्याद ले के दाम आए

मर के याद आए मज़े दुनिया के

घर से निकले थे कि घर याद आया

आप ने तस्वीर भेजी मैं ने देखी ग़ौर से

हर अदा अच्छी ख़मोशी की अदा अच्छी नहीं

दिलचस्प हो गई तिरे चलने से रहगुज़र

उठ उठ के गर्द-ए-राह लिपटती है राह से

वो तो क्या उस का तसव्वुर भी 'जलील'

ब-सद-अंदाज़-ओ-ब-सद-नाज़ आया

अब आओ रख लूँ छुपा कर तुम्हें कलेजे में

हुए हो ख़ैर से शर्म हिजाब के क़ाबिल

कोई क्या जाने कि है रोज़-ए-क़यामत क्या चीज़

दूसरा नाम है मेरी शब-ए-तन्हाई का

जितने थे जाँ-निसार वो सब हो गए निसार

रौनक़ ही रौनक़ आप की महफ़िल में रह गई

इस तरह भेस में आशिक़ के छुपा है माशूक़

जिस तरह आँख के पर्दे में नज़र होती है

आता है जी में साक़ी-ए-मह-वश पे बार बार

लब चूम लूँ तिरा लब-ए-पैमाना छोड़ कर

सब कुछ हम उन से कह गए लेकिन ये इत्तिफ़ाक़

कहने की थी जो बात वही दिल में रह गई

बहार एक दम की है खुलता नहीं कुछ

ये गुल खिल रहे हैं कि मुरझा रहे हैं

कर गई दीवानगी हम को बरी हर जुर्म से

चाक-दामानी से अपनी पाक-दामानी हुई

वो दिल में के निकलते नहीं हैं फिर दिल से

वहीं के हो रहे दम-भर जहाँ क़याम किया

वो चाँदनी में फिरते हैं घर घर ये शोर है

निकला है आफ़्ताब शब-ए-माहताब में

देखता मैं उसे क्यूँकर कि नक़ाब उठते ही

बन के दीवार खड़ी हो गई हैरत मेरी

पीने से कर चुका था मैं तौबा मगर 'जलील'

बादल का रंग देख के नीयत बदल गई

ज़ाहिद की तरह ख़ुश्क मुसलमाँ नहीं 'जलील'

इश्क़-ए-बुताँ भी दिल में है याद-ए-ख़ुदा भी है

कियारियाँ देख के फूलों की वो फ़रमाते हैं

टुकड़ियाँ हैं ये मिरे चाक-गिरेबानों की

होश आने का था जो ख़ौफ़ मुझे

मय-कदे से उम्र भर निकला

तड़प मेरी तरक़्क़ी कर रही है

ज़मीं टकरा जाए आसमाँ से

हुस्न ये है कि दिलरुबा हो तुम

ऐब ये है कि बेवफ़ा हो तुम

मय-कदे की ये उदासी नहीं देखी जाती

नहीं मालूम है क्या देर बहार आने में

यूँ तो आती हैं सैकड़ों बातें

वक़्त पर एक भी नहीं आती

रोज़ वो ख़्वाब में आते हैं गले मिलने को

मैं जो सोता हूँ तो जाग उठती है क़िस्मत मेरी

आप पहलू में जो बैठें तो सँभल कर बैठें

दिल-ए-बेताब को आदत है मचल जाने की

बरसाओ तीर मुझ पे मगर इतना जान लो

पहलू में दिल है दिल में तुम्हारा ख़याल है

रात को कर जो तुम मिलते तो हाँ इक बात थी

सुब्ह को सूरत दिखाने आफ़्ताब आया तो क्या

दीद के क़ाबिल हसीं तो हैं बहुत

हर नज़र दीदार के क़ाबिल नहीं

कोई फ़ित्ना उठा फ़ित्ना-ए-क़ामत की तरह

कोई जादू नज़र आया नज़र की सूरत

हमारी कश्ती-ए-तौबा का ये हुआ अंजाम

बहार आते ही ग़र्क़-ए-शराब हो के रही

सब्र जाए इस की क्या उम्मीद

मैं वही, दिल वही है तू है वही

चर्ख़ को मद्द-ए-नज़र है खींचना पूरी शबीह

माह-ए-नौ तो सिर्फ़ ख़ाका है तिरी तस्वीर का

बे-पिए चैन नहीं होश नहीं जान नहीं

शौक़ काहे को मरज़ है मुझे मय-ख़्वारी का

निगाह-ए-गुल से बुलबुल यूँ गिरी है

गिरे जिस तरह तिनका आशियाँ से

छुपा राज़ मोहब्बत का बू-ए-गुल की तरह

जो बात दिल में थी वो दरमियाँ निकल आई

सब गए पूछने मिज़ाज उन का

मैं गया अपनी दास्ताँ ले कर

तुझ से मिलने पर बुत-ए-बेदर्द ये उक़्दा खुला

भोली-भाली शक्ल वाले होते हैं जल्लाद भी

जिस दिन मय-ए-अलस्त की मौज गई मुझे

रंग दूँगा एक रंग में सारे जहाँ को में

उस ज़ुल्फ़ के फंदे से निकलना नहीं मुमकिन

हाँ माँग कोई राह निकाले तो निकाले

महव हूँ इस क़दर तसव्वुर में

शक ये होता है मैं हूँ या तू है

हुस्न आफ़त नहीं तो फिर क्या है

तू क़यामत नहीं तो फिर क्या है

शुक्र है बाँध लिया अपने खुले बालों को

उस ने शीराज़ा-ए-आलम को बिखरने दिया

तू ने बेवफ़ा क्या जाती दुनिया देख ली

राह पर आने लगा अहद-ए-वफ़ा होने लगे

हो हरी शाख़-ए-तमन्ना या हो

सींच देना चश्म-ए-तर का काम है

सोते में वह जो मुझ से हम-आग़ोश हो गए

जितने गिले थे ख़्वाब-ए-फ़रामोश हो गए

गहन से चाँद निकलता है किस तरह देखें

नक़ाब को रुख़-ए-रौशन से खोल-खाल के फेंक

सब से प्यारी है जान दुनिया में

जान से बढ़ के जान-ए-जाँ तू है

तमीज़-दैर-ओ-का'बा है फ़िक्र-ए-दीन-दुनिया है

ये रिंद-ए-पाक-तीनत भी तिरे अल्लाह वाले हैं

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