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नअत1
दाग़ देहलवी के शेर
तुम्हारा दिल मिरे दिल के बराबर हो नहीं सकता
वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता
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टैग : दिल
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हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़'
जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं
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मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है
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टैग : फ़ेमस शायरी
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वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था
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सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं
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दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे
जो रंज की घड़ी भी ख़ुशी से गुज़ार दे
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टैग : दिल
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आइना देख के कहते हैं सँवरने वाले
आज बे-मौत मरेंगे मिरे मरने वाले
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हमें है शौक़ कि बे-पर्दा तुम को देखेंगे
तुम्हें है शर्म तो आँखों पे हाथ धर लेना
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टैग : बोल्ड पोयम
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इस नहीं का कोई इलाज नहीं
रोज़ कहते हैं आप आज नहीं
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टैग : तग़ाफ़ुल
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शब-ए-विसाल है गुल कर दो इन चराग़ों को
ख़ुशी की बज़्म में क्या काम जलने वालों का
व्याख्या
शब-ए-विसाल अर्थात महबूब से मिलन की रात। गुल करना यानी बुझा देना। इस शे’र में शब-ए-विसाल के अनुरूप चराग़ और चराग़ के संदर्भ से गुल करना। और “ख़ुशी की बज़्म में” की रियायत से जलने वाले दाग़ देहलवी के निबंध सृजन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। शे’र में कई पात्र हैं। एक काव्य पात्र, दूसरा वो एक या बहुत से जिनसे काव्य पात्र सम्बोधित है। शे’र में जो व्यंग्य का लहजा है उसने समग्र स्थिति को और अधिक दिलचस्प बना दिया है। और जब “इन चराग़ों को” कहा तो जैसे कुछ विशेष चराग़ों की तरफ़ संकेत किया है।
शे’र के क़रीब के मायने तो ये हैं कि आशिक़-ओ-माशूक़ के मिलन की रात है, इसलिए चराग़ों को बुझा दो क्योंकि ऐसी रातों में जलने वालों का काम नहीं। चराग़ बुझाने की एक वजह ये भी हो सकती थी कि मिलन की रात में जो भी हो वो पर्दे में रहे मगर जब ये कहा कि जलने वालों का क्या काम है तो शे’र का भावार्थ ही बदल दिया। असल में जलने वाले रुपक हैं उन लोगों का जो काव्य पात्र और उसके महबूब के मिलन पर जलते हैं और ईर्ष्या करते हैं। इसी लिए कहा है कि उन ईर्ष्या करने वालों को इस महफ़िल से उठा दो।
शफ़क़ सुपुरी
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ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया
तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया
ख़बर सुन कर मिरे मरने की वो बोले रक़ीबों से
ख़ुदा बख़्शे बहुत सी ख़ूबियाँ थीं मरने वाले में
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लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से
इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे
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ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
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टैग : नक़ाब
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आप का ए'तिबार कौन करे
रोज़ का इंतिज़ार कौन करे
कल तक तो आश्ना थे मगर आज ग़ैर हो
दो दिन में ये मिज़ाज है आगे की ख़ैर हो
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ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा
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न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबाँ आते आते
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बात तक करनी न आती थी तुम्हें
ये हमारे सामने की बात है
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टैग : तंज़
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दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात
हाए कम-बख़्त को किस वक़्त ख़ुदा याद आया
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टैग : फ़ेमस शायरी
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उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है
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टैग : उर्दू
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हाथ रख कर जो वो पूछे दिल-ए-बेताब का हाल
हो भी आराम तो कह दूँ मुझे आराम नहीं
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हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल
दुआ वही है जो दिल से कभी निकलती है
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टैग : दुआ
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जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई
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टैग : जन्नत
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नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते
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टैग : उर्दू
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जिन को अपनी ख़बर नहीं अब तक
वो मिरे दिल का राज़ क्या जानें
चुप-चाप सुनती रहती है पहरों शब-ए-फ़िराक़
तस्वीर-ए-यार को है मिरी गुफ़्तुगू पसंद
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टैग : तस्वीर
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बड़ा मज़ा हो जो महशर में हम करें शिकवा
वो मिन्नतों से कहें चुप रहो ख़ुदा के लिए
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दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें हुईं एहसान तो गया
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टैग : दिल
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ये तो नहीं कि तुम सा जहाँ में हसीं नहीं
इस दिल को क्या करूँ ये बहलता कहीं नहीं
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ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
मैं जो कह दूँ आप पर मरता हूँ मैं
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टैग : वैलेंटाइन डे
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रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मक़ाम किस का था
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कहने देती नहीं कुछ मुँह से मोहब्बत मेरी
लब पे रह जाती है आ आ के शिकायत मेरी
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टैग : शिकवा
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यूँ भी हज़ारों लाखों में तुम इंतिख़ाब हो
पूरा करो सवाल तो फिर ला-जवाब हो
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लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं
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टैग : शराब
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आओ मिल जाओ कि ये वक़्त न पाओगे कभी
मैं भी हम-राह ज़माने के बदल जाऊँगा
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टैग : इल्तिजा
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ज़िद हर इक बात पर नहीं अच्छी
दोस्त की दोस्त मान लेते हैं
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रुख़-ए-रौशन के आगे शम्अ रख कर वो ये कहते हैं
उधर जाता है देखें या इधर परवाना आता है
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टैग : हुस्न
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अर्ज़-ए-अहवाल को गिला समझे
क्या कहा मैं ने आप क्या समझे
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साक़िया तिश्नगी की ताब नहीं
ज़हर दे दे अगर शराब नहीं
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टैग : तिश्नगी
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तुम को चाहा तो ख़ता क्या है बता दो मुझ को
दूसरा कोई तो अपना सा दिखा दो मुझ को
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फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहाँ मातम भी होता है
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ना-उमीदी बढ़ गई है इस क़दर
आरज़ू की आरज़ू होने लगी
उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं
कोई नाम-ओ-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस 'दाग़' है वो आशिक़ों के दिल में रहते हैं
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ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूटी क़सम से आप का ईमान तो गया
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टैग : वादा
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साथ शोख़ी के कुछ हिजाब भी है
इस अदा का कहीं जवाब भी है
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मुझे याद करने से ये मुद्दआ था
निकल जाए दम हिचकियाँ आते आते
हज़रत-ए-दाग़ जहाँ बैठ गए बैठ गए
और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले
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