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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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तंज़ पर शेर

तंज़ के साथ उमूमन मिज़ाह

का लफ़्ज़ जुड़ा होता है क्यूँ कि गहरा तंज़ तभी क़ाबिल-ए-बर्दाश्त और एक मानी में इस्लाही होता है जब उस का इज़हार इस तौर पर किया जाए कि उस के साथ मिज़ाह का उन्सिर भी शामिल हो। तंज़िया पैराए में एक तख़्लीक़-कार अपने आस पास की दुनिया और समाज की ना-हमवारियों को निशाना बनाता है और ऐसे पहलुओं को बे-नक़ाब करता है जिन पर आम ज़िंदगी में नज़र नहीं जाती और जाती भी है तो उन पर बात करने का हौसला नहीं होता।

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन

दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है

मिर्ज़ा ग़ालिब

हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए

बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए

अकबर इलाहाबादी

हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं

कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं

अकबर इलाहाबादी

दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीराँ को देख कर

मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है

व्याख्या

इस शे’र में शायर ने ख़ुदा से मज़ाक़ किया है जो उर्दू ग़ज़ल की परंपरा रही है। शायर अल्लाह पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि तुम्हारे बंदों ने तुम्हारी इबादत करना छोड़ दी है जिसकी वजह से मस्जिद वीरान हो गई है। चूँकि तुमने मेरी क़िस्मत में ख़ाना-ख़राबी लिखी थी तो अब तुम्हारा उजड़ा हुआ घर देखकर मेरा दिल ख़ुश हुआ है।

शफ़क़ सुपुरी

अब्दुल हमीद अदम

कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है

सब ने इंसान बनने की क़सम खाई है

निदा फ़ाज़ली

बात तक करनी आती थी तुम्हें

ये हमारे सामने की बात है

दाग़ देहलवी

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ

अकबर इलाहाबादी

रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में

कि 'अकबर' नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में

अकबर इलाहाबादी

रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव

चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो

कलीम आजिज़

मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में

शैख़ भी ख़ुश रहें शैतान भी बे-ज़ार हो

अकबर इलाहाबादी

सुनेगा कौन मेरी चाक-दामानी का अफ़्साना

यहाँ सब अपने अपने पैरहन की बात करते हैं

कलीम आजिज़

लीडरों की धूम है और फॉलोवर कोई नहीं

सब तो जेनरेल हैं यहाँ आख़िर सिपाही कौन है

अकबर इलाहाबादी

मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न

ज़िंदगी भर की मोहब्बत का सिला देने लगे

साक़िब लखनवी

शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें

मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें

अकबर इलाहाबादी

हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह देखा

कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर

अकबर इलाहाबादी

सुना ये है बना करते हैं जोड़े आसमानों पर

तो ये समझें कि हर बीवी बला-ए-आसमानी है

अहमद अल्वी

आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम

हम तो ए.बी में रहे अग़्यार बी.ए हो गए

अकबर इलाहाबादी

उठते हुओं को सब ने सहारा दिया 'कलीम'

गिरते हुए ग़रीब सँभाले कहाँ गए

कलीम आजिज़

मरऊब हो गए हैं विलायत से शैख़-जी

अब सिर्फ़ मनअ करते हैं देसी शराब को

अकबर इलाहाबादी

मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से

जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं

अमीर मीनाई

पी लेंगे ज़रा शैख़ तो कुछ गर्म रहेंगे

ठंडा कहीं कर दें ये जन्नत की हवाएँ

अर्श मलसियानी

हज्व ने तो तिरा शैख़ भरम खोल दिया

तू तो मस्जिद में है निय्यत तिरी मय-ख़ाने में

जिगर मुरादाबादी

प्रोफ़ेसर ये उर्दू के जो उर्दू से कमाते हैं

इसी पैसे से बच्चों को ये अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं

अहमद अल्वी

इल्म हासिल कर के भी मिलती नहीं है नौकरी

रहम के क़ाबिल है बस हालत हमारी इन दिनों

रंजूर अज़ीमाबादी

जूते के इंतिख़ाब को मस्जिद में जब गए

वो जूतियाँ पड़ीं कि ख़ुदा याद गया

दिलावर फ़िगार

पहले हम को बहन कहा अब फ़िक्र हमीं से शादी की

ये भी सोचा बहन से शादी कर के क्या कहलाएँगे

राजा मेहदी अली ख़ाँ

कहती है 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की

टट्टी की आड़ में है मज़ा कुछ शिकार का

रियाज़ ख़ैराबादी

कलाम-ए-मीर समझे और ज़बान-ए-मीरज़ा समझे

मगर उन का कहा या आप समझें या ख़ुदा समझे

ऐश देहलवी

चेहरे तो झुर्रियों से भरे दिल जवान हैं

दिन में हैं शैख़ रात में सलमान-ख़ान हैं

साग़र ख़य्यामी

के बज़्म-ए-शेर में शर्त-ए-वफ़ा पूरी तो कर

जितना खाना खा गया है उतनी मज़दूरी तो कर

दिलावर फ़िगार

वहाँ जो लोग अनाड़ी हैं वक़्त काटते हैं

यहाँ भी कुछ मुतशायर दिमाग़ चाटते हैं

दिलावर फ़िगार

जो चाहता है कि बन जाए वो बड़ा शायर

वो जा के दोस्ती गाँठे किसी मुदीर के साथ

ज़फ़र कमाली

परेशानी से सर के बाल तक सब झड़ गए लेकिन

पुरानी जेब में कंघी जो पहले थी सो अब भी है

ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी

हम मानते हैं आप बड़े ग़म-गुसार हैं

लेकिन ये आस्तीन में क्या है दिखाइए

इक़बाल अज़ीम

पता होता तो करता कभी कोई नेकी

तुम्हीं जन्नत में मिलोगी मुझे मालूम था

रूही कंजाही

वाइज़ ने मुझ में देखी है ईमान की कमी

वाइज़ में सिर्फ़ दुम की कसर देखता हूँ मैं

माचिस लखनवी

उन के गुनाह क्या कहें किस किस के सर गए

तुम को ख़बर नहीं कई उस्ताद मर गए

साग़र ख़य्यामी

हमारे लाल को दरकार है वही लड़की

कि जिस का बाप पुलिस में हो कम से कम डिप्टी

साग़र ख़य्यामी

नाम के साथ एक दो अल्फ़ाज़ की दुम चाहिए

शेर फीका ही सही लेकिन तरन्नुम चाहिए

हाजी लक़ लक़

यहाँ तक सिलसिला पहुँचा है उस की कम-बयानी का

वो नौ बच्चों की माँ है फिर भी दा'वा है जवानी का

असद जाफ़री

इज़्ज़त है गधों की ठिकाना है गधों का

लीडर यही कहता है ज़माना है गधों का

हरफ़न लखनवी

जो अपना भाई है रहता है वो पाँव की ठोकर में

मगर जोरू का भाई तो गले का हार होता है

ज़फ़र कमाली

शैख़-साहब ने मसाइल में जकड़ रक्खा है

वर्ना इस्लाम तो आसान था अच्छा-ख़ासा

ओसामा मुनीर

वो डिग्री की बजाए मेम ले कर लौट आया है

मिला था दाख़िला जिस को समुंदर-पार कॉलेज में

इनाम-उल-हक़ जावेद

आई सदा-ए-हक़ कि यही बंद-ओ-बस्त हैं

तेरे वतन के लोग तो मुर्दा-परस्त हैं

साग़र ख़य्यामी

ज़माने का चलन क्या पूछते हो 'ख़्वाह-मख़ाह' मुझ से

वही रफ़्तार बे-ढंगी जो पहले थी सो अब भी है

ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी

बहुत दुबली बहुत पतली हयाती होती जाती है

चपाती रफ़्ता रफ़्ता काग़ज़ाती होती जाती है

अबीर अबुज़री

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