जुरअत क़लंदर बख़्श के शेर
जल्द ख़ू अपनी बदल वर्ना कोई कर के तिलिस्म
आ के दिल अपना तिरे दिल से बदल जाऊँगा
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काफ़िर हूँ जो महरम पे भी हाथ उस के लगा हो
मशहूर ग़लत महरम-ए-असरार हुए हम
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ता-फ़लक ले गई बेताबी-ए-दिल तब बोले
हज़रत-ए-इश्क़ कि पहला है ये ज़ीना अपना
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टैग : हज़ार दास्तान-ए-इश्क़
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इक बोसा माँगता हूँ मैं ख़ैरात-ए-हुस्न की
दो माल की ज़कात कि दौलत ज़ियादा हो
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क्या आतिश-ए-फ़ुर्क़त ने बुरी पाई है तासीर
इस आग से पानी भी बुझाया नहीं जाता
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भरी जो हसरत-ओ-यास अपनी गुफ़्तुगू में है
ख़ुदा ही जाने कि बंदा किस आरज़ू में है
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हम दिवानों का ये है दश्त-ए-जुनूँ में रुत्बा
कि क़दम रखते ही आ पाँव से हर ख़ार लगा
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यूँ क़तरे मिरे ख़ून के उस तेग़ से गुज़रे
जूँ फ़ौज का पुल पर से हो दुश्वार उतारा
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गुलशन में जो वस्फ़ इस का कहूँ ध्यान लगा कर
हर गुल मिरी बातों को सुने कान लगा कर
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ये आग लगा दी कि नहीं अंजुम-ओ-अफ़्लाक
ये दाग़ पे है दाग़ ये छाले पे है छाला
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जहाँ कुछ दर्द का मज़कूर होगा
हमारा शेर भी मशहूर होगा
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शागिर्द-ए-रशीद आप सा हूँ शैख़-जी साहिब
कुछ इल्म ओ अमल तुम ने न शैतान में छोड़ा
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खाए सो पछताए और पछताए वो भी जो न खाए
ये ग़म-ए-इश्क़-ए-बुताँ लड्डू है गोया बोर का
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सभी इनआम नित पाते हैं ऐ शीरीं-दहन तुझ से
कभू तू एक बोसे से हमारा मुँह भी मीठा कर
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इक बाज़ी-ए-इश्क़ से हैं आरी
खेले हैं वगर्ना सब जुए हम
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है आशिक़ ओ माशूक़ में ये फ़र्क़ कि महबूब
तस्वीर-ए-तफ़र्रुज है वो पुतला है अलम का
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बोसे गर हम ने लिए हैं तो दिए भी तुम को
छुट गए आप के एहसाँ से बराबर हो कर
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आज घेरा ही था उसे मैं ने
कर के इक़रार मुझ से छूट गया
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नौ-गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत हूँ मिरी वज़्अ' से तुम
इतना घबराओ न प्यारे मैं सँभल जाऊँगा
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मिल गए थे एक बार उस के जो मेरे लब से लब
'उम्र भर होंटों पे अपने मैं ज़बाँ फेरा किया
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दिल की क्या पूछे है इक क़तरा-ए-ख़ूँ था हमदम
सो ग़म-ए-इश्क़ ने आते ही उसे नोश किया
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मुझ को हुआ ये ख़ाक-नशीनी से फ़ाएदा
था दिल के आइने पे जो कुछ रंग उड़ गया
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वारस्ता कर दिया जिसे उल्फ़त ने बस वो शख़्स
कब दाम-कुफ्र ओ रिश्ता-ए-इस्लाम में फँसा
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किश्त-ए-दिल फ़ौज-ए-ग़म ने की ताराज
तिस पे तू माँगने ख़िराज आया
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कल उस सनम के कूचे से निकला जो शैख़-ए-वक़्त
कहते थे सब इधर से अजब बरहमन गया
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दिल-ए-मुज़्तर ये कहे है वहीं ले चल वर्ना
तोड़ छाती के किवाड़ों को निकल जाऊँगा
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थे बयाबान-ए-मोहब्बत में जो गिर्यां आह हम
मंज़िल-ए-मक़्सूद को पहुँचे तरी की राह हम
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याँ ज़ीस्त का ख़तरा नहीं हाँ खींचिए तलवार
वो ग़ैर था जो देख के समसाम डरे था
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पीछे पीछे मिरे चलने से रुको मत साहिब
कोई पूछेगा तो कहियो ये है नौकर मेरा
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पयाम अब वो नहीं भेजता ज़बानी भी
कि जिस की होंटों में लेते थे हम ज़बाँ हर रोज़
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शब ख़्वाब में जो उस के दहन से दहन लगा
खुलते ही आँख काँपने सारा बदन लगा
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देखा ज़ाहिद ने जो उस रू-ए-किताबी को तो बस
वरक़-ए-कुफ़्र लिया दफ़्तर-ए-ईमान को फाड़
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शैख़-जी हम तो हैं नादाँ पर उसे आने दो
हम भी पूछेंगे हुई आप की दानाई क्या
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मशहूर जवानी में हो वो क्यूँ न जगत-बाज़
मैलान-ए-तबीअत था लड़कपन से ज़िले पर
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मिस्ल-ए-आईना बा-सफ़ा हैं हम
देखने ही के आश्ना हैं हम
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चली जाती है तू ऐ उम्र-ए-रफ़्ता
ये हम को किस मुसीबत में फँसा कर
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रोऊँ तो ख़ुश हो के पिए है वो मय
समझे है मौसम इसे बरसात का
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मिस्ल-ए-मजनूँ जो परेशाँ है बयाबान में आज
क्यूँ दिला कौन समाया है तिरे ध्यान में आज
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ठहरी थी ग़िज़ा अपनी जो ग़म इश्क़-ए-बुताँ में
सो आह हमारी हमें ख़ूराक ने खाया
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आगे था दिल ही मिरा अब है खुदा आप का नाम
ज़ौक़ से समझिए आप इस को नगीना अपना
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बे-हिस-ओ-हैराँ जो हूँ घर में पड़ा इस के एवज़
काश मैं नक़्श-ए-क़दम होता किसी की राह का
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क्या क्या किया है कूचा-ब-कूचा मुझे ख़राब
ख़ाना ख़राब हो दिल-ए-ख़ाना-ख़राब का
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तब्अ कह और ग़ज़ल, है ये 'नज़ीरी' का जवाब
रेख़्ता ये जो पढ़ा क़ाबिल-ए-इज़हार न था
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सर दीजे राह-ए-इश्क़ में पर मुँह न मोड़िए
पत्थर की सी लकीर है ये कोह-कन की बात
शायद उसी का ज़िक्र हो यारो मैं इस लिए
सुनता हूँ गोश-ए-दिल से हर इक मर्द-ओ-ज़न की बात
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लज़्ज़त-ए-वस्ल कोई पूछे तो पी जाता हूँ
कह के होंटों ही में होंटों के मिलाने का मज़ा
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पूछो न कुछ सबब मिरे हाल-ए-तबाह का
उल्फ़त का ये समर है नतीजा है चाह का
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कहिए क्यूँकर न उसे बादशह-ए-किश्वर-ए-हुस्न
कि जहाँ जा के वो बैठा वहीं दरबार लगा
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दिल जिगर की मिरे पूछे है ख़बर क्या है ऐ यार
नोक-ए-मिज़्गाँ पे ज़रा देख नुमूदार है क्या
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रहे क़फ़स ही में हम और चमन में फिर फिर कर
हज़ार मर्तबा मौसम बहार का पहुँचा
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