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इब्न-ए-इंशा के शेर
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
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इक साल गया इक साल नया है आने को
पर वक़्त का अब भी होश नहीं दीवाने को
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कब लौटा है बहता पानी बिछड़ा साजन रूठा दोस्त
हम ने उस को अपना जाना जब तक हाथ में दामाँ था
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रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती
वो रातें चाँद के साथ गईं वो बातें चाँद के साथ गईं
अब सुख के सपने क्या देखें जब दुख का सूरज सर पर हो
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इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें
हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा
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अपनी ज़बाँ से कुछ न कहेंगे चुप ही रहेंगे आशिक़ लोग
तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का
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टैग : अयादत
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कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर
जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा
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'इंशा'-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या
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हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे
तू याद रहेगा हमें हाँ याद रहेगा
दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो
इस बात से हम को क्या मतलब ये कैसे हो ये क्यूँकर हो
हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता
हर किसी की नज़र नहीं होती
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टैग : हुस्न
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हम किसी दर पे न ठिटके न कहीं दस्तक दी
सैकड़ों दर थे मिरी जाँ तिरे दर से पहले
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गर्म आँसू और ठंडी आहें मन में क्या क्या मौसम हैं
इस बग़िया के भेद न खोलो सैर करो ख़ामोश रहो
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अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
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हक़ अच्छा पर उस के लिए कोई और मरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पे चढ़ो ख़ामोश रहो
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एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है
एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए
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बेकल बेकल रहते हो पर महफ़िल के आदाब के साथ
आँख चुरा कर देख भी लेते भोले भी बन जाते हो
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अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर से पहले
जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूँ बन में न जा बिसराम करे
दीवानों की सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या
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वहशत-ए-दिल के ख़रीदार भी नापैद हुए
कौन अब इश्क़ के बाज़ार में खोलेगा दुकाँ
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कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो
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टैग : ख़ामोशी
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एक दिन देखने को आ जाते
ये हवस उम्र भर नहीं होती
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यूँही तो नहीं दश्त में पहुँचे यूँही तो नहीं जोग लिया
बस्ती बस्ती काँटे देखे जंगल जंगल फूल मियाँ
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आन के इस बीमार को देखे तुझ को भी तौफ़ीक़ हुई
लब पर उस के नाम था तेरा जब भी दर्द शदीद हुआ
'मीर' से बैअत की है तो 'इंशा' मीर की बैअत भी है ज़रूर
शाम को रो रो सुब्ह करो अब सुब्ह को रो रो शाम करो
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दीदा ओ दिल ने दर्द की अपने बात भी की तो किस से की
वो तो दर्द का बानी ठहरा वो क्या दर्द बटाएगा
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टैग : दर्द
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सुन तो लिया किसी नार की ख़ातिर काटा कोह निकाली नहर
एक ज़रा से क़िस्से को अब देते क्यूँ हो तूल मियाँ
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बे तेरे क्या वहशत हम को तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
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जल्वा-नुमाई बेपरवाई हाँ यही रीत जहाँ की है
कब कोई लड़की मन का दरीचा खोल के बाहर झाँकी है
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जनम जनम के सातों दुख हैं उस के माथे पर तहरीर
अपना आप मिटाना होगा ये तहरीर मिटाने में
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टैग : ज़िंदगी
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ऐ क़ैस-ए-जुनूँ-पेशा 'इंशा' को कभी देखा
वहशी हो तो ऐसा हो रुस्वा हो तो ऐसा हो
कटने लगीं रातें आँखों में देखा नहीं पलकों पर अक्सर
या शाम-ए-ग़रीबाँ का जुगनू या सुब्ह का तारा होता है
फिर उन की गली में पहुँचेगा फिर सहव का सज्दा कर लेगा
इस दिल पे भरोसा कौन करे हर रोज़ मुसलमाँ होता है
ये तो सच है कि हम तुझे पा न सके तिरी याद भी जी से भुला न सके
तिरा दाग़ है दिल में चराग़-सिफ़त तिरे नाम की ज़ेब-ए-गुलू-कफ़नी
सब को दिल के दाग़ दिखाए एक तुझी को दिखा न सके
तेरा दामन दूर नहीं था हाथ हमीं फैला न सके
वहशत का उनवान हमारी उन में से जो नार बनी
देखेंगे तो लोग कहेंगे 'इंशा'-जी दीवाने थे
किन राहों से हो कर आई हो किस गुल का संदेसा लाई हो
हम बाग़ में ख़ुश ख़ुश बैठे थे क्या कर दिया आ के सबा तुम ने
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टैग : पैग़ाम
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मिन्नत-ए-क़ासिद कौन उठाए शिकवा-ए-दरबाँ कौन करे
नामा-ए-शौक़ ग़ज़ल की सूरत छपने को दो अख़बार के बीच
वो जो तेरा दाग़ ग़ुलामी माथे पर लिए फिरता है
उस का नाम तो 'इंशा' ठहरा नाहक़ को बदनाम है चाँद
सखियों से कब सखियाँ अपने जी के भेद छुपाती हैं
हम से नहीं तो उस से कह दे करता कहाँ कलाम है चाँद
इक बात कहेंगे 'इंशा'-जी तुम्हें रेख़्ता कहते उम्र हुई
तुम एक जहाँ का इल्म पढ़े कोई 'मीर' सा शेर कहा तुम ने
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उस को मुद्दत हुई सब्र करते हुए आज कू-ए-वफ़ा से गुज़रते हुए
पूछ कर उस गदा का ठिकाना सजन अपने 'इंशा' को भी देख आना सजन
ग़म-ए-इश्क़ में कारी दवा न दुआ ये है रोग कठिन ये है दर्द बुरा
हम करते जो अपने से हो सकता कभी हम से भी कुछ न कहा तुम ने
कोई और भी मोरिद-ए-लुत्फ़ हुआ मिली अहल-ए-हवस को हवस की सज़ा
तिरे शहर में थे हमीं अहल-ए-वफ़ा मिली एक हमीं को जला-वतनी
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टैग : वफ़ा
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अब तुझ से किस मुँह से कह दें सात समुंदर पार न जा
बीच की इक दीवार भी हम तो फाँद न पाए ढा न सके
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टैग : बेबसी
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कुछ वो जिन्हें हम से निस्बत थी उन कूचों में आन आबाद हुए
कुछ अर्श पे तारे कहलाए कुछ फूल बने जा गुलशन में
ख़ार-ओ-ख़स-ओ-ख़ाशाक तो जानें एक तुझी को ख़बर न मिले
ऐ गुल-ए-ख़ूबी हम तो अबस बदनाम हुए गुलज़ार के बीच
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टैग : रुस्वाई
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हम इस लम्बे-चौड़े घर में शब को तन्हा होते हैं
देख किसी दिन आ मिल हम से हम को तुझ से काम है चाँद
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टैग : इल्तिजा
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