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जुनैद हज़ीं लारी

1933 | बनारस, भारत

जुनैद हज़ीं लारी के शेर

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देखा नहीं वो चाँद सा चेहरा कई दिन से

तारीक नज़र आती है दुनिया कई दिन से

वो सादगी में भी है अजब दिलकशी लिए

इस वास्ते हम उस की तमन्ना में जी लिए

क़तरा हो तो बहर आए वजूद में

पानी की एक बूँद समुंदर से कम नहीं

अजब बहार दिखाई लहू के छींटों ने

ख़िज़ाँ का रंग भी रंग-ए-बहार जैसा था

तिरी तलाश में निकले तो इतनी दूर गए

कि हम से तय हुए फ़ासले जुदाई के

उदासियाँ हैं जो दिन में तो शब में तन्हाई

बसा के देख लिया शहर-ए-आरज़ू मैं ने

इश्क़ है जी का ज़ियाँ इश्क़ में रक्खा क्या है

दिल-ए-बर्बाद बता तेरी तमन्ना क्या है

कभी इस राह से गुज़रे वो शायद

गली के मोड़ पर तन्हा खड़ा हूँ

उसी को दश्त-ए-ख़िज़ाँ ने किया बहुत पामाल

जो फूल सब से हसीं मौसम-ए-बहार में था

ग़म दे गया नशात-ए-शनासाई ले गया

वो अपने साथ अपनी मसीहाई ले गया

कलियों में ताज़गी है फूलों में बास है

तेरे बग़ैर सारा गुलिस्ताँ उदास है

रुकी रुकी सी है बरसात ख़ुश्क है सावन

ये और बात कि मौसम यही नुमू का है

दूर साहिल से कोई शोख़ इशारा भी नहीं

डूबने वाले को तिनके का सहारा भी नहीं

ग़ैरों की शिकस्ता हालत पर हँसना तो हमारा शेवा था

लेकिन हुए हम आज़ुर्दा बहुत जब अपने घर की बात चली

इक शम-ए-आरज़ू की हक़ीक़त ही क्या मगर

तूफ़ाँ में हम चराग़ जलाए हुए तो हैं

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