असग़र गोंडवी के शेर
चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियाँ हों ज़िंदगी दुश्वार हो जाए
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टैग : प्रेरणादायक
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पहली नज़र भी आप की उफ़ किस बला की थी
हम आज तक वो चोट हैं दिल पर लिए हुए
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टैग : निगाह
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ज़ाहिद ने मिरा हासिल-ए-ईमाँ नहीं देखा
रुख़ पर तिरी ज़ुल्फ़ों को परेशाँ नहीं देखा
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टैग : ज़ुल्फ़
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एक ऐसी भी तजल्ली आज मय-ख़ाने में है
लुत्फ़ पीने में नहीं है बल्कि खो जाने में है
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टैग : मय-कदा
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अक्स किस चीज़ का आईना-ए-हैरत में नहीं
तेरी सूरत में है क्या जो मेरी सूरत में नहीं
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यूँ मुस्कुराए जान सी कलियों में पड़ गई
यूँ लब-कुशा हुए कि गुलिस्ताँ बना दिया
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टैग : मुस्कुराहट
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जीना भी आ गया मुझे मरना भी आ गया
पहचानने लगा हूँ तुम्हारी नज़र को मैं
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आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं
साक़ी ने इस मक़ाम को आसाँ बना दिया
होता है राज़-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत इन्हीं से फ़ाश
आँखें ज़बाँ नहीं हैं मगर बे-ज़बाँ नहीं
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टैग : आँख
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इक अदा इक हिजाब इक शोख़ी
नीची नज़रों में क्या नहीं होता
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वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
कली की आँख खुल जाए चमन बेदार हो जाए
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टैग : बेदार
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बना लेता है मौज-ए-ख़ून-ए-दिल से इक चमन अपना
वो पाबंद-ए-क़फ़स जो फ़ितरतन आज़ाद होता है
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टैग : हौसला
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माइल-ए-शेर-ओ-ग़ज़ल फिर है तबीअत 'असग़र'
अभी कुछ और मुक़द्दर में है रुस्वा होना
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रिंद जो ज़र्फ़ उठा लें वही साग़र बन जाए
जिस जगह बैठ के पी लें वही मय-ख़ाना बने
सुनता हूँ बड़े ग़ौर से अफ़्साना-ए-हस्ती
कुछ ख़्वाब है कुछ अस्ल है कुछ तर्ज़-ए-अदा है
छुट जाए अगर दामन-ए-कौनैन तो क्या ग़म
लेकिन न छुटे हाथ से दामान-ए-मोहम्मद
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मुझ से जो चाहिए वो दर्स-ए-बसीरत लीजे
मैं ख़ुद आवाज़ हूँ मेरी कोई आवाज़ नहीं
ज़ुल्फ़ थी जो बिखर गई रुख़ था कि जो निखर गया
हाए वो शाम अब कहाँ हाए वो अब सहर कहाँ
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टैग : वक़्त
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नहीं दैर ओ हरम से काम हम उल्फ़त के बंदे हैं
वही काबा है अपना आरज़ू दिल की जहाँ निकले
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टैग : दैर ओ हरम
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सौ बार तिरा दामन हाथों में मिरे आया
जब आँख खुली देखा अपना ही गरेबाँ था
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टैग : गरेबान
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अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियाँ
हर इक को है गुमाँ कि मुख़ातब हमीं रहे
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ये भी फ़रेब से हैं कुछ दर्द आशिक़ी के
हम मर के क्या करेंगे क्या कर लिया है जी के
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'असग़र' ग़ज़ल में चाहिए वो मौज-ए-ज़िंदगी
जो हुस्न है बुतों में जो मस्ती शराब में
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टैग : शेर
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ये आस्तान-ए-यार है सेहन-ए-हरम नहीं
जब रख दिया है सर तो उठाना न चाहिए
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मैं क्या कहूँ कहाँ है मोहब्बत कहाँ नहीं
रग रग में दौड़ी फिरती है नश्तर लिए हुए
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हल कर लिया मजाज़ हक़ीक़त के राज़ को
पाई है मैं ने ख़्वाब की ताबीर ख़्वाब में
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टैग : ख़्वाब
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लोग मरते भी हैं जीते भी हैं बेताब भी हैं
कौन सा सेहर तिरी चश्म-ए-इनायत में नहीं
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टैग : ज़िंदगी
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नियाज़-ए-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़-ए-नादाँ
हज़ारों बन गए काबे जबीं मैं ने जहाँ रख दी
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मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी
जल्वों के इज़दिहाम ने हैराँ बना दिया
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टैग : दीदार
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दास्ताँ उन की अदाओं की है रंगीं लेकिन
इस में कुछ ख़ून-ए-तमन्ना भी है शामिल अपना
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'असग़र' हरीम-ए-इश्क़ में हस्ती ही जुर्म है
रखना कभी न पाँव यहाँ सर लिए हुए
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हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेश्तर
तुम ने तो मुस्कुरा के रग-ए-जाँ बना दिया
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आलाम-ए-रोज़गार को आसाँ बना दिया
जो ग़म हुआ उसे ग़म-ए-जानाँ बना दिया
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'असग़र' से मिले लेकिन 'असग़र' को नहीं देखा
अशआ'र में सुनते हैं कुछ कुछ वो नुमायाँ है
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आरिज़-ए-नाज़ुक पे उन के रंग सा कुछ आ गया
इन गुलों को छेड़ कर हम ने गुलिस्ताँ कर दिया
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मुझ को ख़बर रही न रुख़-ए-बे-नक़ाब की
है ख़ुद नुमूद हुस्न में शान-ए-हिजाब की
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वो शोरिशें निज़ाम-ए-जहाँ जिन के दम से है
जब मुख़्तसर किया उन्हें इंसाँ बना दिया
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लज़्ज़त-ए-सज्दा-हा-ए-शौक़ न पूछ
हाए वो इत्तिसाल-ए-नाज़-ओ-नियाज़
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बे-महाबा हो अगर हुस्न तो वो बात कहाँ
छुप के जिस शान से होता है नुमायाँ कोई
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क़हर है थोड़ी सी भी ग़फ़लत तरीक़-ए-इश्क़ में
आँख झपकी क़ैस की और सामने महमिल न था
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यहाँ कोताही-ए-ज़ौक़-ए-अमल है ख़ुद गिरफ़्तारी
जहाँ बाज़ू सिमटते हैं वहीं सय्याद होता है
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रूदाद-ए-चमन सुनता हूँ इस तरह क़फ़स में
जैसे कभी आँखों से गुलिस्ताँ नहीं देखा
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मिरी वहशत पे बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं ज़ाहिद
बहुत से बाँध रक्खे हैं गरेबाँ मैं ने दामन में
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क्या मस्तियाँ चमन में हैं जोश-ए-बहार से
हर शाख़-ए-गुल है हाथ में साग़र लिए हुए
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कुछ मिलते हैं अब पुख़्तगी-ए-इश्क़ के आसार
नालों में रसाई है न आहों में असर है
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उस जल्वा-गाह-ए-हुस्न में छाया है हर तरफ़
ऐसा हिजाब चश्म-ए-तमाशा कहें जिसे
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क्या क्या हैं दर्द-ए-इश्क़ की फ़ित्ना-तराज़ियाँ
हम इल्तिफ़ात-ए-ख़ास से भी बद-गुमाँ रहे
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बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ न मस्ती है न होश
ज़र्रे सब साकित-ओ-सामित हैं सितारे ख़ामोश
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ये इश्क़ ने देखा है ये अक़्ल से पिन्हाँ है
क़तरे में समुंदर है ज़र्रे में बयाबाँ है
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ऐ शैख़ वो बसीत हक़ीक़त है कुफ़्र की
कुछ क़ैद-ए-रस्म ने जिसे ईमाँ बना दिया
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