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सालिम सलीम

1985 | दिल्ली, भारत

नई नस्ल के महत्वपूर्ण शायर।

नई नस्ल के महत्वपूर्ण शायर।

सालिम सलीम के शेर

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अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे

मिरे अंदर से सभी रंग तुम्हारे निकले

भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद

शर्त ये है कि मिरी ख़ाक की क़ीमत दी जाए

चटख़ के टूट गई है तो बन गई आवाज़

जो मेरे सीने में इक रोज़ ख़ामुशी हुई थी

मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर

तुम्हें इतना ज़ियादा कर लिया है

इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर

इक आग मेरे कमरे के अंदर लगी रहे

तरस रही थीं ये आँखें किसी की सूरत को

सो हम भी दश्त में आब-ए-रवाँ उठा लाए

वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की

वो मिल गया है तो जी चाहता है खोने को

ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से

तमाशा देख रहा हूँ मैं अपने जलने का

ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को

अब मुझे ज़िद है कि बर्बाद किया जाए उसे

कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो

मेरे पास आएगा और आसान कर देगा मुझे

तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब

अभी तक मेरे कमरे में धुआँ फैला हुआ है

मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ

फिर इस के बाद कोई शय चमकती रहती है

कैसा हंगामा बपा है कि मिरे शहर के लोग

ख़ामुशी ढूँढने ग़ारों की तरफ़ जाते हुए

रहा होगा वो दामन से हवा बाँधे हुए

आज ख़ुशबू को परेशान किया जाएगा

रास आती नहीं अब मेरे लहू को कोई ख़ाक

ऐसा इस जिस्म का पाबंद-ए-सलासिल हुआ मैं

ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे

जिस को पाना नहीं क्या याद किया जाए उसे

मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है

जो भड़कती है तिरे छिड़के हुए पानी से

थके हुए से बदन को लिटा के बिस्तर पर

हम अपने आप से लड़ते हैं नींद आने तक

तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात

तमाम खोए हुओं को इशारा कर के लाओ

मैं ज़ख़्म-ए-दर-बदरी खा के लौट आऊँ जब

मिरे जले हुए सीने पे हात रख देना

क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी

क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं

हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ

वस्ल की रात है क्यूँ मर्सिया-ख़्वानी करें हम

अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में

वो जब्र था कि ख़ुद को ख़ुदा कर चुके हैं हम

टूटते बर्तन का शोर और गूँगी बहरी ख़ामुशी

हम ने रख ली है बचा कर एक गहरी ख़ामुशी

कहकशाएँ मिरी मिट्टी की तरफ़ आती हुईं

मिरे ज़र्रात सितारों की तरफ़ जाते हुए

चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा

मैं बुझ के रह गया उस को हवा बनाने में

देखना ता'बीर में हर सुब्ह को सहरा की प्यास

रात को फिर अपने ख़्वाबों में समुंदर देखना

ये रात सुब्ह में तब्दील होने वाली है

सब अपनी अपनी कहानी का इख़्तिताम करें

जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ

जाने क्या मिरे काँधे पे सर सा रहता है

बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस

ज़रा सा झाँक के देखें कहीं हवा ही हो

सो गया वक़्त की दहलीज़ पे सर रक्खे हुए

मैं कहाँ तक सफ़र-ए-इश्क़ में तन्हा जाता

जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को

रूह के अंदर कोई कार-ए-बदन होता हुआ

जो एक दम में तमाम रूहों को ख़ाक कर दे

बदन से उड़ता हुआ इक ऐसा शरार देखूँ

इस दिल में चुभा रहता था काँटे की तरह वो

इक रोज़ उसे मैं ने मोहब्बत से निकाला

समेटने में लगे हैं हम अपनी साँसों को

ये जानते हैं कि इक दिन बिखेर देगा कोई

ये आँखें सूखी पड़ी हैं लहू से नम कर लूँ

जो तुम कहो तो ज़रा सा तुम्हारा ग़म कर लूँ

शायद कुछ मजबूरी बढ़ती जाती है

तुझ से मेरी दूरी बढ़ती जाती है

और कब तक ज़िंदगी की नाज़-बरदारी करें

दोस्तो आओ चलो मरने की तय्यारी करें

ये जिस्म उतरा हुआ है मेरा कि रूह से ख़ुद को ढाँपना है

कोई आए ज़रा यहाँ पर अभी मैं कपड़े बदल रहा हूँ

भेद भरे इस पानी में

डूब गया हैरानी में

किसी और दर के निशान मेरी जबीं पे हैं

तू बहुत दिनों से मिरा ख़ुदा नहीं हो रहा

मैं आसमान-ओ-ज़मीं के झगड़े में यूँही बे-वज्ह पड़ गया था

कोई बुलाता है पास अपने किसी के हमराह चल रहा हूँ

कितने बेकार ख़ुदाओं की इबादत की है

आख़िरी बार किसी बुत से शिकायत की है

ख़ुद अपने आप को वैसे भी ढूँढना होगा

सदाएँ दे के मुझे यूँ भी छुप रहेगा कोई

सुना है चाँद को उलझा लिया है शाख़ों ने

सो अब चराग़ दरीचों पे रख दिए जाएँ

बस एक चीख़ सी उभरेगी ख़ाना-ए-दिल से

फिर इस के बा'द मिरी ख़ामुशी सुनेगा कोई

मुझी से हुए ये रस्ते तमाम जाते हैं उस के दर तक

मैं रहा हूँ उसी के दर पर कि अपने अंदर निकल रहा हूँ

जो हुई सुब्ह तो देखे नए क़दमों के निशाँ

आज ही रात को लौटे थे सफ़र से अपने

कितनी आँखें दर-ओ-दीवार से चिपकी हुई हैं

रास्ता भूले हुए शख़्स कभी घर भी तो

तय कर लिया है मैं ने सराबों भरा सफ़र

दश्त अब मुझे मिरा इनआ'म चाहिए

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