मुझ से क़फ़स का दरवाज़ा क्या टूटेगा
पाँव पड़ी ज़ंजीर में खोई रहती हूँ
कह रहे हैं वो बना कर ज़ुल्फ़ को
मुजरिमान-ए-इश्क़ की ज़ंजीर देख
क़फ़स में रह के न रोते अगर ये जानते हम
चमन में रह के भी रोना है बाल-ओ-पर के लिए
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टैग्ज़ : गिर्या-ओ-ज़ारीऔर 1 अन्य
शजर की याद रुलाती ही थी मगर अब तो
जो आशियाँ के बराबर था वो क़फ़स भी गया
क़ैद-ए-आवारगी-ए-जाँ ही बहुत है मुझ को
एक दीवार मिरी रूह के अंदर न बना
ज़िंदगानी असीर करने को
गेसुओं का ये जाल अच्छा है
रोज़ ज़िंदान की दीवार पे लिखता है कोई
हाए तन्हाई सलासिल से कहीं भारी है
गाह हो जाता हूँ मैं अपनी अना का क़ैदी
मैं न आऊँ तो फिर आ कर मुझे छुड़वाएगा
खींचते हो हर जानिब किस लिए लकीरें सी
मैं न कोई रावन हूँ मैं न कोई सीता हूँ
ख़त-ओ-काकुल-ओ-ज़ुल्फ़-ओ-अंदाज़-ओ-नाज़
हुईं दाम-ए-रह सद-गिरफ़्तारियाँ