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संपूर्ण
परिचय
ई-पुस्तक1446
लेख40
उद्धरण30
तंज़-ओ-मज़ाह1
शेर20
ग़ज़ल31
नज़्म6
ऑडियो 11
वीडियो2
चित्र शायरी 6
आल-ए-अहमद सुरूर
लेख 40
उद्धरण 30

ग़ज़ल हमारी सारी शायरी नहीं है, मगर हमारी शायरी का इत्र ज़रूर है।
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अदबी ज़बान न मुकम्मल तौर पर बोल-चाल की ज़बान हो सकती है, और न मुकम्मल तौर पर इल्मी। हाँ, दोनों से मदद ले सकती है।
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दरबार की वजह से शायरी में शाइस्तगी और नाज़ुक-ख़्याली, सन्नाई और हमवारी आई है। ऐश-ए-इमरोज़ और जिस्म का एहसास उभरा है।
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अदब इंक़लाब नहीं लाता बल्कि इंक़लाब के लिए ज़हन को बेदार करता है।
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तंज़-ओ-मज़ाह 1
अशआर 20
साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन
तूफ़ान से लड़ने में मज़ा और ही कुछ है
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हम जिस के हो गए वो हमारा न हो सका
यूँ भी हुआ हिसाब बराबर कभी कभी
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- ग़ज़ल देखिए
तुम्हारी मस्लहत अच्छी कि अपना ये जुनूँ बेहतर
सँभल कर गिरने वालो हम तो गिर गिर कर सँभले हैं
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आती है धार उन के करम से शुऊर में
दुश्मन मिले हैं दोस्त से बेहतर कभी कभी
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- ग़ज़ल देखिए
हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
और तो सब कुछ था लेकिन रस्म-ए-दिलदारी न थी
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- ग़ज़ल देखिए