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प्रमुख और नई दिशा देने वाले आधुनिक शायर

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साक़ी फ़ारुक़ी के शेर

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मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा

ये हादसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा

मेरी आँखों में अनोखे जुर्म की तज्वीज़ थी

सिर्फ़ देखा था उसे उस का बदन मैला हुआ

तेरे चेहरे पे उजाले की सख़ावत ऐसी

और मिरी रूह में नादार अंधेरा ऐसा

मुद्दत हुई इक शख़्स ने दिल तोड़ दिया था

इस वास्ते अपनों से मोहब्बत नहीं करते

आग हो दिल में तो आँखों में धनक पैदा हो

रूह में रौशनी लहजे में चमक पैदा हो

उस के वारिस नज़र नहीं आए

शायद उस लाश के पते हैं बहुत

तू जान-ए-मोहब्बत है मगर तेरी तरफ़ भी

इक ख़्वाहिश-ए-तश्हीर-ए-वफ़ा ले गई हम को

मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली

तुझ से बिछड़ के ज़िंदगी दुनिया से जा मिली

मिट जाएगा सेहर तुम्हारी आँखों का

अपने पास बुला लेगी दुनिया इक दिन

बुझे लबों पे है बोसों की राख बिखरी हुई

मैं इस बहार में ये राख भी उड़ा दूँगा

मुझे गुनाह में अपना सुराग़ मिलता है

वगरना पारसा-ओ-दीन-दार मैं भी था

ख़ुदा के वास्ते मौक़ा दे शिकायत का

कि दोस्ती की तरह दुश्मनी निभाया कर

रास्ता दे कि मोहब्बत में बदन शामिल है

मैं फ़क़त रूह नहीं हूँ मुझे हल्का समझ

दिल ही अय्यार है बे-वज्ह धड़क उठता है

वर्ना अफ़्सुर्दा हवाओं में बुलावा कैसा

रूह में रेंगती रहती है गुनह की ख़्वाहिश

इस अमरबेल को इक दिन कोई दीवार मिले

वही जीने की आज़ादी वही मरने की जल्दी है

दिवाली देख ली हम ने दसहरे कर लिए हम ने

हादसा ये है कि हम जाँ मोअत्तर कर पाए

वो तो ख़ुश-बू था उसे यूँ भी बिखर जाना था

हद-बंदी-ए-ख़िज़ाँ से हिसार-ए-बहार तक

जाँ रक़्स कर सके तो कोई फ़ासला नहीं

तुझ से मिलने का रास्ता बस एक

और बिछड़ने के रास्ते हैं बहुत

डूब जाने का सलीक़ा नहीं आया वर्ना

दिल में गिर्दाब थे लहरों की नज़र में हम थे

मुझे समझने की कोशिश की मोहब्बत ने

ये और बात ज़रा पेचदार मैं भी था

हैरानी में हूँ आख़िर किस की परछाईं हूँ

वो भी ध्यान में आया जिस का साया कोई था

जो तेरे दिल में है वो बात मेरे ध्यान में है

तिरी शिकस्त तिरी लुक्नत-ए-ज़बान में है

मैं तो ख़ुदा के साथ वफ़ादार भी रहा

ये ज़ात का तिलिस्म मगर टूटता नहीं

तमाम जिस्म की उर्यानियाँ थीं आँखों में

वो मेरी रूह में उतरा हिजाब पहने हुए

वो मिरी रूह की उलझन का सबब जानता है

जिस्म की प्यास बुझाने पे भी राज़ी निकला

व्याख्या

इस शे’र का विषय “रूह की उलझन” पर स्थित है। आत्मा की शरीर से अनुरूपता ख़ूब है। शायर का यह कहना है कि वो अर्थात उसका प्रिय उसकी आत्मा की उलझन का कारण जानता है। यानी मेरी आत्मा किस उलझन में है उसे अच्छी तरह मालूम है। मैं ये सोचता था कि वो सिर्फ़ मेरी आत्मा की उलझन को दूर करेगा मगर वो तो मेरे शरीर की प्यास बुझाने के लिए भी राज़ी होगया। दूसरे मिसरे में शब्द “भी” बहुत अर्थपूर्ण है। इससे स्पष्ट होता है कि शायर का प्रिय हालांकि यह जानता है कि वो आत्मा की उलझन में ग्रस्त है और आत्मा और शरीर के बीच एक तरह का अंतर्विरोध है। जिसका यह अर्थ है कि मेरे प्रिय को मालूम था कि मेरी आत्मा के भ्रम की वजह वास्तव में शरीर की प्यास ही है मगर प्रिय आत्मा की जगह उसके शरीर की प्यास बुझाने के लिए तैयार हो गया।

शफ़क़ सुपुरी

मगर उन सीपियों में पानियों का शोर कैसा था

समुंदर सुनते सुनते कान बहरे कर लिए हम ने

एक एक कर के लोग बिछड़ते चले गए

ये क्या हुआ कि वक़्फ़ा-ए-मातम नहीं मिला

ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना

टूटता जाता है आवाज़ से रिश्ता अपना

तुम और किसी के हो तो हम और किसी के

और दोनों ही क़िस्मत की शिकायत नहीं करते

सुब्ह तक रात की ज़ंजीर पिघल जाएगी

लोग पागल हैं सितारों से उलझना कैसा

मेरे अंदर उसे खोने की तमन्ना क्यूँ है

जिस के मिलने से मिरी ज़ात को इज़हार मिले

वो ख़ुदा है तो मिरी रूह में इक़रार करे

क्यूँ परेशान करे दूर का बसने वाला

मुझ में सात समुंदर शोर मचाते हैं

एक ख़याल ने दहशत फैला रक्खी है

दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ डाल

रौशनी-फ़रोश अंधेरा कर अभी

नए चराग़ जला याद के ख़राबे में

वतन में रात सही रौशनी मनाया कर

मेरी अय्यार निगाहों से वफ़ा माँगता है

वो भी मोहताज मिला वो भी सवाली निकला

मैं अपने शहर से मायूस हो के लौट आया

पुराने सोग बसे थे नए मकानों में

हम तंगना-ए-हिज्र से बाहर नहीं गए

तुझ से बिछड़ के ज़िंदा रहे मर नहीं गए

अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है

मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएँगे इक दिन

मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला

साक़ी मिरे मिज़ाज का मौसम नहीं मिला

वही आँखों में और आँखों से पोशीदा भी रहता है

मिरी यादों में इक भूला हुआ चेहरा भी रहता है

मैं ने चाहा था कि अश्कों का तमाशा देखूँ

और आँखों का ख़ज़ाना था कि ख़ाली निकला

लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं

वक़्त अकेला इसी सबब से है

नामों का इक हुजूम सही मेरे आस-पास

दिल सुन के एक नाम धड़कता ज़रूर है

मैं उन से भी मिला करता हूँ जिन से दिल नहीं मिलता

मगर ख़ुद से बिछड़ जाने का अंदेशा भी रहता है

इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते

ये बात किसी और से कह भी नहीं सकते

क़त्ल करने का इरादा है मगर सोचता हूँ

तू अगर आए तो हाथों में झिजक पैदा हो

ये क्या तिलिस्म है क्यूँ रात भर सिसकता हूँ

वो कौन है जो दियों में जला रहा है मुझे

अजब कि सब्र की मीआद बढ़ती जाती है

ये कौन लोग हैं फ़रियाद क्यूँ नहीं करते

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