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मुस्तफ़ा ज़ैदी

1929 - 1970 | कराची, पाकिस्तान

तेग़ इलाहाबादी के नाम से भी विख्यात, पाकिस्तान में सी एस पी अफ़सर थे, रहस्यमय हालात में क़त्ल किए गए।

तेग़ इलाहाबादी के नाम से भी विख्यात, पाकिस्तान में सी एस पी अफ़सर थे, रहस्यमय हालात में क़त्ल किए गए।

मुस्तफ़ा ज़ैदी के शेर

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इन्हीं पत्थरों पे चल कर अगर सको तो आओ

मिरे घर के रास्ते में कोई कहकशाँ नहीं है

मिरी रूह की हक़ीक़त मिरे आँसुओं से पूछो

मिरा मज्लिसी तबस्सुम मिरा तर्जुमाँ नहीं है

आँधी चली तो नक़्श-ए-कफ़-ए-पा नहीं मिला

दिल जिस से मिल गया वो दोबारा नहीं मिला

दिल के रिश्ते अजीब रिश्ते हैं

साँस लेने से टूट जाते हैं

मत पूछ कि हम ज़ब्त की किस राह से गुज़रे

ये देख कि तुझ पर कोई इल्ज़ाम आया

इस तरह होश गँवाना भी कोई बात नहीं

और यूँ होश से रहने में भी नादानी है

मैं किस के हाथ पे अपना लहू तलाश करूँ

तमाम शहर ने पहने हुए हैं दस्ताने

इश्क़ इन ज़ालिमों की दुनिया में

कितनी मज़लूम ज़ात है दिल

यूँ तो वो हर किसी से मिलती है

हम से अपनी ख़ुशी से मिलती है

ग़म-ए-दौराँ ने भी सीखे ग़म-ए-जानाँ के चलन

वही सोची हुई चालें वही बे-साख़्ता-पन

रूह के इस वीराने में तेरी याद ही सब कुछ थी

आज तो वो भी यूँ गुज़री जैसे ग़रीबों का त्यौहार

हम अंजुमन में सब की तरफ़ देखते रहे

अपनी तरह से कोई अकेला नहीं मिला

तितलियाँ उड़ती हैं और उन को पकड़ने वाले

सई-ए-नाकाम में अपनों से बिछड़ जाते हैं

जिस दिन से अपना तर्ज़-ए-फ़क़ीराना छुट गया

शाही तो मिल गई दिल-ए-शाहाना छुट गया

तुझ से तो दिल के पास मुलाक़ात हो गई

मैं ख़ुद को ढूँडने के लिए दर-ब-दर गया

उतरा था जिस पे बाब-ए-हया का वरक़ वरक़

बिस्तर के एक एक शिकन की शरीक थी

ख़ुदा करे कि तिरे हुस्न को ज़वाल हो

मैं चाहता हूँ तुझे यूँही उम्र-भर देखूँ

ख़ुद अपने शब-ओ-रोज़ गुज़र जाएँगे लेकिन

शामिल है मिरे ग़म में तिरी दर-बदरी भी

हम ने तो लुट के मोहब्बत की रिवायत रख ली

उन से तो पोछिए वो किस लिए पछताते रहे

आँख झुक जाती है जब बंद-ए-क़बा खुलते हैं

तुझ में उठते हुए ख़ुर्शीद की उर्यानी है

कोई रफ़ीक़ बहम ही हो तो क्या कीजे

कभी कभी तिरा ग़म ही हो तो क्या कीजे

वो इक तिलिस्म था क़ुर्बत में उस के उम्र कटी

गले लगा के उसे उस की आरज़ू करते

कोई हम-नफ़स नहीं है कोई राज़-दाँ नहीं है

फ़क़त एक दिल था अपना सो वो मेहरबाँ नहीं है

मेरे नग़्मात की तक़दीर पहुँचे तुझ तक

मेरी फ़रियाद की क़िस्मत कि तुझे छू आई

इक मौज-ए-ख़ून-ए-ख़ल्क़ थी किस की जबीं पे थी

इक तौक़-ए-फ़र्द-ए-जुर्म था किस के गले में था

नावक-ए-ज़ुल्म उठा दशना-ए-अंदोह सँभाल

लुत्फ़ के ख़ंजर-ए-बे-नाम से मत मार मुझे

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