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कृष्ण बिहारी नूर

1926 - 2003 | लखनऊ, भारत

लोकप्रिय शायर, लखनवी भाषा-संस्कृति के नुमाइंदे।

लोकप्रिय शायर, लखनवी भाषा-संस्कृति के नुमाइंदे।

कृष्ण बिहारी नूर के शेर

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मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा

सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए

आइना ये तो बताता है कि मैं क्या हूँ मगर

आइना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझ में

इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

और क्या जुर्म है पता ही नहीं

सच घटे या बढ़े तो सच रहे

झूट की कोई इंतिहा ही नहीं

यही मिलने का समय भी है बिछड़ने का भी

मुझ को लगता है बहुत अपने से डर शाम के बाद

कैसी अजीब शर्त है दीदार के लिए

आँखें जो बंद हों तो वो जल्वा दिखाई दे

चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो

आइना झूट बोलता ही नहीं

मैं जिस के हाथ में इक फूल दे के आया था

उसी के हाथ का पत्थर मिरी तलाश में है

तिश्नगी के भी मक़ामात हैं क्या क्या यानी

कभी दरिया नहीं काफ़ी कभी क़तरा है बहुत

हवस ने तोड़ दी बरसों की साधना मेरी

गुनाह क्या है ये जाना मगर गुनाह के बअ'द

मिटे ये शुबह तो दोस्त तुझ से बात करें

हमारी पहली मुलाक़ात आख़िरी तो नहीं

आइना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन

आइना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझ में

क्यूँ आईना कहें उसे पत्थर क्यूँ कहें

जिस आईने में अक्स उस का दिखाई दे

जितने मौसम हैं सभी जैसे कहीं मिल जाएँ

इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में

इक तरफ़ क़ानून है और इक तरफ़ इंसान है

ख़त्म होता ही नहीं जुर्म-ओ-सज़ा का सिलसिला

ऐसा हो गुनाह की दलदल में जा फँसूँ

मेरी आरज़ू मुझे ले चल सँभाल के

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

और क्या जुर्म है पता ही नहीं

जैसे अन-देखे उजाले की कोई दीवार हो

बंद हो जाता है कुछ दूरी पे हर इक रास्ता

मौसम हैं दो ही इश्क़ के सूरत कोई भी हो

हैं उस के पास आइने हिज्र-ओ-विसाल के

तूफ़ाँ के बा'द मैं भी बहुत टूट सा गया

दरिया फिर अपने रुख़ पे बहा ले गया मुझे

मुद्दत के बा'द 'नूर' हँसी लब पे आई है

वो अपना हम-ख़याल बना ले गया मुझे

हो वापसी अगर तो इन्हें रास्तों से हो

जिन रास्तों से प्यार तिरा ले गया मुझे

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