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ज़फ़र इक़बाल के शेर

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जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा

अब इन्ही आँखों ने चाहा तो नज़ारे नहीं थे

हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को

सो अपने आप ही इस चाँद को गहनाए रखते हैं

रास्ते हैं खुले हुए सारे

फिर भी ये ज़िंदगी रुकी हुई है

उठा सकते नहीं जब चूम कर ही छोड़ना अच्छा

मोहब्बत का ये पत्थर इस दफ़ा भारी ज़ियादा है

तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें

जो मोहब्बत मुफ़्त में मिल जाए आसानी के साथ

चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें

दीवार से पुराना कैलन्डर उतार दे

एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़

रफ़्ता रफ़्ता इस क़दर सुनसान कर देगा मुझे

उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं

रात भर बारिश थी उस का रात भर पैग़ाम था

मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर

मैं तुझे भी इस मरज़ में मुब्तला कर जाऊँगा

एक दिन सुब्ह जो उट्ठें तो ये दुनिया ही हो

है मदार अब किसी ऐसी ही ख़ुश-इम्कानी पर

तुझ को मेरी मुझे तेरी ख़बर जाएगी

ईद अब के भी दबे पाँव गुज़र जाएगी

रौशनी अब राह से भटका भी देती है मियाँ

उस की आँखों की चमक ने मुझ को बे-घर कर दिया

सुना है वो मिरे बारे में सोचता है बहुत

ख़बर तो है ही मगर मो'तबर ज़्यादा नहीं

हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल

डूबते को अभी तिनके का सहारा कम है

ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम सहर

कभी तो जाएँगे इस दाल-भात से आगे

वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें

पहला पहला झूट है उस को यक़ीं जाएगा

वो मुझ से अपना पता पूछने को निकले

कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था

मैं अंदर से कहीं तब्दील होना चाहता था

पुरानी केंचुली में ही नया होना था मुझ को

यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू मिला

किसी को हम मिले और हम को तू मिला

इक लहर है कि मुझ में उछलने को है 'ज़फ़र'

इक लफ़्ज़ है कि मुझ से अदा होने वाला है

ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का

कि ध्यान ही रहा ग़म की बे-लिबासी का

यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए

बात कुछ भी हो और दिल में तमाशा लग जाए

साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी

अब नज़र आए हैं आवाज़ के आसार मुझे

तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है

तिरे ख़मोश किनारे नहीं समझता हूँ

बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई

जवाँ हो गया हूँ हसीं हो गया हूँ

हम पे दुनिया हुई सवार 'ज़फ़र'

और हम हैं सवार दुनिया पर

बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी

जला के ख़ाक करेगा यही शरारा मुझे

ऐसा है जैसे आँख की पुतली के वस्त में

नक़्शा बना हुआ है किसी ख़्वाब-ज़ार का

हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी

तो शोला उस बदन-पाक से निकलता है

मैं ज़ियादा हूँ बहुत उस के लिए अब तक भी

और मेरे लिए वो सारे का सारा कम है

कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ

तुम्हारे सामने है काम जितना हो रहा है

जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब

एक दिन हम ने इसी आग में जल जाना है

मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने दिया

वो खो गया तो किसी ने पुकारने दिया

साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल

देखने वालों ने देखा इसे गदला कर के

जिधर से खोल के बैठे थे दर अंधेरे का

उसी तरफ़ से हमें रौशनी बहुत आई

अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना

पाँव पर पाँव जो रखना तो दबा भी देना

मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है

सूखने डाल दिया जाऊँ जो धोया हुआ मैं

करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का

फ़ारिग़ तो बैठता नहीं सोने के बावजूद

इंकिसारी में मिरा हुक्म भी जारी था 'ज़फ़र'

अर्ज़ करते हुए इरशाद भी ख़ुद मैं ने किया

बस एक बार किसी ने गले लगाया था

फिर उस के बाद मैं था मेरा साया था

सुनोगे लफ़्ज़ में भी फड़फड़ाहट

लहू में भी पर-अफ़्शानी रहेगी

अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है

कि उस से मिल के बिछड़ने की आरज़ू है बहुत

रखता हूँ अपना आप बहुत खींच-तान कर

छोटा हूँ और ख़ुद को बड़ा करने आया हूँ

ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही हो कहीं

जो सो गए हैं उन को जगा लेना चाहिए

हुस्न उस का उसी मक़ाम पे है

ये मुसाफ़िर सफ़र नहीं करता

वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत

हर एक लफ़्ज़ हर इक नक़्श की अदा देखूँ

दर-ए-उमीद से हो कर निकलने लगता हूँ

तो यास रौज़न-ए-ज़िंदाँ से आँख मारती है

आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू

पीछे मुड़ूँ तो गर्द-ए-सफ़र मेरे सामने

चूमने के लिए थाम रख्खूँ कोई दम वो हाथ

और वो पाँव रंग-ए-हिना के लिए छोड़ दूँ

वो मक़ामात-ए-मुक़द्दस वो तिरे गुम्बद क़ौस

और मिरा ऐसे निशानात का ज़ाएर होना

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