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ज़फ़र इक़बाल के शेर

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थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते

कुछ और थक गया हूँ आराम करते करते

झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'

आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिए

यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू मिला

किसी को हम मिले और हम को तू मिला

तुझ को मेरी मुझे तेरी ख़बर जाएगी

ईद अब के भी दबे पाँव गुज़र जाएगी

ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए

ये तमाशा अब सर-ए-बाज़ार होना चाहिए

मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'

साफ़ पहचान लिया जाता हूँ रोया हुआ मैं

अब वही करने लगे दीदार से आगे की बात

जो कभी कहते थे बस दीदार होना चाहिए

अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना

पाँव पर पाँव जो रखना तो दबा भी देना

उस को भी याद करने की फ़ुर्सत थी मुझे

मसरूफ़ था मैं कुछ भी करने के बावजूद

रास्ते हैं खुले हुए सारे

फिर भी ये ज़िंदगी रुकी हुई है

सफ़र पीछे की जानिब है क़दम आगे है मेरा

मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवाँ होने की ख़ातिर

ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा

कोई इलाज नहीं आज की उदासी का

टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को

ये भी हो सकता है वो सामने बैठा ही हो

ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का

कि ध्यान ही रहा ग़म की बे-लिबासी का

यूँ मोहब्बत से दे मेरी मोहब्बत का जवाब

ये सज़ा सख़्त है थोड़ी सी रिआ'यत कर दे

जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता

मैं हमेशा तो मोहब्बत में नहीं रह सकता

बदन का सारा लहू खिंच के गया रुख़ पर

वो एक बोसा हमें दे के सुर्ख़-रू है बहुत

घर नया बर्तन नए कपड़े नए

इन पुराने काग़ज़ों का क्या करें

उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं

रात भर बारिश थी उस का रात भर पैग़ाम था

मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने 'ज़फ़र'

कितना चालाक था मारा मुझे तन्हा कर के

बस एक बार किसी ने गले लगाया था

फिर उस के बाद मैं था मेरा साया था

वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर दोस्त

तिरे फ़िराक़ में हम को हँसी बहुत आई

मैं किसी और ज़माने के लिए हूँ शायद

इस ज़माने में है मुश्किल मिरा ज़ाहिर होना

ख़राबी हो रही है तो फ़क़त मुझ में ही सारी

मिरे चारों तरफ़ तो ख़ूब अच्छा हो रहा है

तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें

जो मोहब्बत मुफ़्त में मिल जाए आसानी के साथ

यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए

बात कुछ भी हो और दिल में तमाशा लग जाए

चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें

दीवार से पुराना कैलन्डर उतार दे

मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर

मैं तुझे भी इस मरज़ में मुब्तला कर जाऊँगा

इश्क़ उदासी के पैग़ाम तो लाता रहता है दिन रात

लेकिन हम को ख़ुश रहने की आदत बहुत ज़ियादा है

मौत के साथ हुई है मिरी शादी सो 'ज़फ़र'

उम्र के आख़िरी लम्हात में दूल्हा हुआ मैं

भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद

वो ख़्वाब है तो यूँही देखने से गुज़रेगा

वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी देखा

अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को

बाहर से चट्टान की तरह हूँ

अंदर की फ़ज़ा में थरथरी है

जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा

अब इन्ही आँखों ने चाहा तो नज़ारे नहीं थे

मैं बिखर जाऊँगा ज़ंजीर की कड़ियों की तरह

और रह जाएगी इस दश्त में झंकार मिरी

जिस का इंकार हथेली पे लिए फिरता हूँ

जानता ही नहीं इंकार का मतलब क्या है

वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें

पहला पहला झूट है उस को यक़ीं जाएगा

वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत

हर एक लफ़्ज़ हर इक नक़्श की अदा देखूँ

अपने ही सामने दीवार बना बैठा हूँ

है ये अंजाम उसे रस्ते से हटा देने का

अभी मेरी अपनी समझ में भी नहीं रही

मैं जभी तो बात को मुख़्तसर नहीं कर रहा

रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंट

एक दो पल के लिए गुल-दान कर देगा मुझे

करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का

फ़ारिग़ तो बैठता नहीं सोने के बावजूद

सुना है वो मिरे बारे में सोचता है बहुत

ख़बर तो है ही मगर मो'तबर ज़्यादा नहीं

पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को

और फिर मेरी ज़बाँ पर तिरा ताला लग जाए

अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है

कि उस से मिल के बिछड़ने की आरज़ू है बहुत

मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता

नए लम्हों में तस्वीरें पुरानी माँग लेता हूँ

कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे

जितनी भी मुश्किल में हूँ आसान कर देगा मुझे

विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को

मैं रोज़ मौत के मंजधार से निकलता हूँ

आँख के एक इशारे से किया गुल उस ने

जल रहा था जो दिया इतनी हवा होते हुए

यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त

लब-ए-दरिया हूँ मैं और वो पस-ए-दरिया खिला है

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