वली मोहम्मद वली के शेर
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
उसे ज़िंदगी क्यूँ न भारी लगे
चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़्सार का
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याद करना हर घड़ी तुझ यार का
है वज़ीफ़ा मुझ दिल-ए-बीमार का
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मुफ़लिसी सब बहार खोती है
मर्द का ए'तिबार खोती है
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दिल-ए-उश्शाक़ क्यूँ न हो रौशन
जब ख़याल-ए-सनम चराग़ हुआ
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पी के बैराग की उदासी सूँ
दिल पे मेरे सदा उदासी है
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गुल हुए ग़र्क़ आब-ए-शबनम में
देख उस साहिब-ए-हया की अदा
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ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं
यक निगह में ग़ुलाम करते हैं
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फिर मेरी ख़बर लेने वो सय्याद न आया
शायद कि मिरा हाल उसे याद न आया
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किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता
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देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
है मुताला मतला-ए-अनवार का
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आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में
होश खोया है हर नमाज़ी का
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तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा
जादू हैं तिरे नैन ग़ज़ालाँ सूँ कहूँगा
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शग़्ल बेहतर है इश्क़-बाज़ी का
क्या हक़ीक़ी ओ क्या मजाज़ी का
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राह-ए-मज़मून-ए-ताज़ा बंद नहीं
ता क़यामत खुला है बाब-ए-सुख़न
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तेरे लब के हुक़ूक़ हैं मुझ पर
क्यूँ भुला दूँ मैं दिल से हक़्क़-ए-नमक
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ऐ नूर-ए-जान-ओ-दीदा तिरे इंतिज़ार में
मुद्दत हुई पलक सूँ पलक आश्ना नईं
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किशन की गोपियाँ की नईं है ये नस्ल
रहें सब गोपियाँ वो नक़्ल ये अस्ल
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हर ज़र्रा उस की चश्म में लबरेज़-ए-नूर है
देखा है जिस ने हुस्न-ए-तजल्ली बहार का
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आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर नईं
तिश्ना-लब हूँ शर्बत-ए-दीदार का
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जामा-ज़ेबों को क्यूँ तजूँ कि मुझे
घेर रखता है दौर दामन का
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रश्क सूँ तुझ लबाँ की सुर्ख़ी पर
जिगर-ए-लाला दाग़ दाग़ हुआ
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आज तुझ याद ने ऐ दिलबर-ए-शीरीं-हरकात
आह को दिल के उपर तेशा-ए-फ़रहाद किया
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न हो क्यूँ शोर दिल की बाँसुली में
मलाहत का सलोना कान पहुँचा
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छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
कि ता जानूँ परी-रू की गली में
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मिरे दिल की तजल्ली क्यों रहे पोशीदा मज्लिस में
ज़'ईफ़ी सूँ हुआ है पर्दा-ए-फ़ानूस तन मेरा
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