मोहसिन नक़वी के शेर
हर वक़्त का हँसना तुझे बर्बाद न कर दे
तन्हाई के लम्हों में कभी रो भी लिया कर
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कौन सी बात है तुम में ऐसी
इतने अच्छे क्यूँ लगते हो
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यूँ देखते रहना उसे अच्छा नहीं 'मोहसिन'
वो काँच का पैकर है तो पत्थर तिरी आँखें
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सिर्फ़ हाथों को न देखो कभी आँखें भी पढ़ो
कुछ सवाली बड़े ख़ुद्दार हुआ करते हैं
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तुम्हें जब रू-ब-रू देखा करेंगे
ये सोचा है बहुत सोचा करेंगे
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कल थके-हारे परिंदों ने नसीहत की मुझे
शाम ढल जाए तो 'मोहसिन' तुम भी घर जाया करो
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वफ़ा की कौन सी मंज़िल पे उस ने छोड़ा था
कि वो तो याद हमें भूल कर भी आता है
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वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से
गली में फिर खिलौने बेचने वाला न आ जाए
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टैग : मुफ़्लिसी
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जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
अपना क्या है सारे शहर का इक जैसा नुक़सान हुआ
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कितने लहजों के ग़िलाफ़ों में छुपाऊँ तुझ को
शहर वाले मिरा मौज़ू-ए-सुख़न जानते हैं
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ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ से वहशत उसे भी थी
मेरी तरह किसी से मोहब्बत उसे भी थी
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अब तक मिरी यादों से मिटाए नहीं मिटता
भीगी हुई इक शाम का मंज़र तिरी आँखें
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टैग : आँख
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ये किस ने हम से लहू का ख़िराज फिर माँगा
अभी तो सोए थे मक़्तल को सुर्ख़-रू कर के
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कहाँ मिलेगी मिसाल मेरी सितमगरी की
कि मैं गुलाबों के ज़ख़्म काँटों से सी रहा हूँ
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अब के बारिश में तो ये कार-ए-ज़ियाँ होना ही था
अपनी कच्ची बस्तियों को बे-निशाँ होना ही था
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टैग : बारिश
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अज़ल से क़ाएम हैं दोनों अपनी ज़िदों पे 'मोहसिन'
चलेगा पानी मगर किनारा नहीं चलेगा
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टैग : अज़ल
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क्यूँ तिरे दर्द को दें तोहमत-ए-वीरानी-ए-दिल
ज़लज़लों में तो भरे शहर उजड़ जाते हैं
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गहरी ख़मोश झील के पानी को यूँ न छेड़
छींटे उड़े तो तेरी क़बा पर भी आएँगे
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जो दे सका न पहाड़ों को बर्फ़ की चादर
वो मेरी बाँझ ज़मीं को कपास क्या देगा
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लोगो भला इस शहर में कैसे जिएँगे हम जहाँ
हो जुर्म तन्हा सोचना लेकिन सज़ा आवारगी
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मौसम-ए-ज़र्द में एक दिल को बचाऊँ कैसे
ऐसी रुत में तो घने पेड़ भी झड़ जाते हैं
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सुना है शहर में ज़ख़्मी दिलों का मेला है
चलेंगे हम भी मगर पैरहन रफ़ू कर के
हम अपनी धरती से अपनी हर सम्त ख़ुद तलाशें
हमारी ख़ातिर कोई सितारा नहीं चलेगा
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वो लम्हा भर की कहानी कि उम्र भर में कही
अभी तो ख़ुद से तक़ाज़े थे इख़्तिसार के भी
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पलट के आ गई ख़ेमे की सम्त प्यास मिरी
फटे हुए थे सभी बादलों के मश्कीज़े
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ये शाइ'री ये किताबें ये आयतें दिल की
निशानियाँ ये सभी तुझ पे वारना होंगी
वो मुझ से बढ़ के ज़ब्त का आदी था जी गया
वर्ना हर एक साँस क़यामत उसे भी थी
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जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बेकार समझते थे
उन अश्कों से कितना रौशन इक तारीक मकान हुआ
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दश्त-ए-हस्ती में शब-ए-ग़म की सहर करने को
हिज्र वालों ने लिया रख़्त-ए-सफ़र सन्नाटा
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बड़ी उम्र के बा'द इन आँखों में कोई अब्र उतरा तिरी यादों का
मिरे दिल की ज़मीं आबाद हुई मिरे ग़म का नगर शादाब हुआ
चुनती हैं मेरे अश्क रुतों की भिकारनें
'मोहसिन' लुटा रहा हूँ सर-ए-आम चाँदनी
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ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ
मैं आवाज़ों के बन में घिर गया हूँ
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शाख़-ए-उरियाँ पर खिला इक फूल इस अंदाज़ से
जिस तरह ताज़ा लहू चमके नई तलवार पर
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इस शान से लौटे हैं गँवा कर दिल-ओ-जाँ हम
इस तौर तो हारे हुए लश्कर नहीं आते
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काश कोई हम से भी पूछे
रात गए तक क्यूँ जागे हो
जो अपनी ज़ात से बाहर न आ सका अब तक
वो पत्थरों को मता-ए-हवास क्या देगा
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तेज़ हवा ने मुझ से पूछा
रेत पे क्या लिखते रहते हो
ढलते सूरज की तमाज़त ने बिखर कर देखा
सर-कशीदा मिरा साया सफ़-ए-अशजार के बीच
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टैग : साया
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