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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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माहिर-उल क़ादरी

1906 - 1978 | कराची, पाकिस्तान

शायर, संपादक व फ़िल्मी गीतकार

शायर, संपादक व फ़िल्मी गीतकार

माहिर-उल क़ादरी के शेर

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ये कह के दिल ने मिरे हौसले बढ़ाए हैं

ग़मों की धूप के आगे ख़ुशी के साए हैं

अक़्ल कहती है दोबारा आज़माना जहल है

दिल ये कहता है फ़रेब-ए-दोस्त खाते जाइए

इक बार तुझे अक़्ल ने चाहा था भुलाना

सौ बार जुनूँ ने तिरी तस्वीर दिखा दी

व्याख्या

इस शे’र में इश्क़ की घटना को अक़्ल और जुनूँ के पैमानों में तौलने का पहलू बहुत दिलचस्प है। इश्क़ के मामले में अक़्ल और उन्माद का द्वंद शाश्वत है। जहाँ अक़्ल इश्क़ को मानव जीवन के लिए हानि का एक कारण मानती है वहीं उन्माद इश्क़ को मानव जीवन का सार मानती है।और अगर इश्क़ में उन्माद पर अक़्ल हावी हो गया तो इश्क़ इश्क़ नहीं रहता क्योंकि इश्क़ की पहली शर्त जुनून है। और जुनून का ठिकाना दिल है। इसलिए अगर आशिक़ दिल के बजाय अक़्ल की सुने तो वो अपने उद्देश्य में कभी कामयाब नहीं होगा।

शायर कहना चाहता है कि मैं अपने महबूब के इश्क़ में इस क़दर मजनूं हो गया हूँ कि उसे भुलाने के लिए अक़्ल ने एक बार ठान ली थी मगर मेरे इश्क़ के जुनून ने मुझे सौ बार अपने महबूब की तस्वीर दिखा दी। “तस्वीर दिखा” भी ख़ूब है। क्योंकि उन्माद की स्थिति में इंसान एक ऐसी स्थिति से दो-चार होजाता है जब उसकी आँखों के सामने कुछ ऐसी चीज़ें दिखाई देती हैं जो यद्यपि वहाँ मौजूद नहीं होती हैं मगर इस तरह के जुनून में मुब्तला इंसान उन्हें हक़ीक़त समझता है। शे’र अपनी स्थिति की दृष्टि से बहुत दिलचस्प है।

शफ़क़ सुपुरी

यही है ज़िंदगी अपनी यही है बंदगी अपनी

कि उन का नाम आया और गर्दन झुक गई अपनी

इब्तिदा वो थी कि जीने के लिए मरता था मैं

इंतिहा ये है कि मरने की भी हसरत रही

नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है

वो निकली धूप साया जा रहा है

परवाने ही जाएँगे खिंच कर ब-जब्र-ए-इश्क़

महफ़िल में सिर्फ़ शम्अ जलाने की देर है

सुनाते हो किसे अहवाल 'माहिर'

वहाँ तो मुस्कुराया जा रहा है

यूँ कर रहा हूँ उन की मोहब्बत के तज़्किरे

जैसे कि उन से मेरी बड़ी रस्म-ओ-राह थी

अगर ख़मोश रहूँ मैं तो तू ही सब कुछ है

जो कुछ कहा तो तिरा हुस्न हो गया महदूद

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