हिमायत अली शाएर के शेर
अपने किसी अमल पे नदामत नहीं मुझे
था नेक-दिल बहुत जो गुनहगार मुझ में था
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इस जहाँ में तो अपना साया भी
रौशनी हो तो साथ चलता है
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तुझ से वफ़ा न की तो किसी से वफ़ा न की
किस तरह इंतिक़ाम लिया अपने आप से
फिर मिरी आस बढ़ा कर मुझे मायूस न कर
हासिल-ए-ग़म को ख़ुदा-रा ग़म-ए-हासिल न बना
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'शाइर' उन की दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप
ठोकरें खा कर तो सुनते हैं सँभल जाते हैं लोग
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टैग : दोस्ती
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मैं कुछ न कहूँ और ये चाहूँ कि मिरी बात
ख़ुश्बू की तरह उड़ के तिरे दिल में उतर जाए
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सिर्फ़ ज़िंदा रहने को ज़िंदगी नहीं कहते
कुछ ग़म-ए-मोहब्बत हो कुछ ग़म-ए-जहाँ यारो
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टैग : ज़िंदगी
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रौशनी में अपनी शख़्सियत पे जब भी सोचना
अपने क़द को अपने साए से भी कम-तर देखना
इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए
चमकी जो ज़रा धूप तो जलने लगे साए
हर क़दम पर नित-नए साँचे में ढल जाते हैं लोग
देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग
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मैं सच तो बोलता हूँ मगर ऐ ख़ुदा-ए-हर्फ़
तू जिस में सोचता है मुझे वो ज़बान दे
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टैग : सच
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ईमाँ भी लाज रख न सका मेरे झूट की
अपने ख़ुदा पे कितना मुझे ए'तिमाद था
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टैग : ख़ुदा
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सूरज के उजाले में चराग़ाँ नहीं मुमकिन
सूरज को बुझा दो कि ज़मीं जश्न मनाए
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बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है
मिरे अलाव में अब राख के सिवा क्या है
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टैग : बदन
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इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और
जब आग हो नम-ख़ुर्दा तो उठता है धुआँ और
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टैग : एहसान
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किस लिए कीजे किसी गुम-गश्ता जन्नत की तलाश
जब कि मिट्टी के खिलौनों से बहल जाते हैं लोग
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ये कैसा क़ाफ़िला है जिस में सारे लोग तन्हा हैं
ये किस बर्ज़ख़ में हैं हम सब तुम्हें भी सोचना होगा
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टैग : तन्हाई
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हम भी हैं किसी कहफ़ के असहाब के मानिंद
ऐसा न हो जब आँख खुले वक़्त गुज़र जाए
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मैं सोचता हूँ इस लिए शायद मैं ज़िंदा हूँ
मुमकिन है ये गुमान हक़ीक़त का ज्ञान दे
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ज़िंदगी की बात सुन कर क्या कहें
इक तमन्ना थी तक़ाज़ा बन गई
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अब न कोई मंज़िल है और न रहगुज़र कोई
जाने क़ाफ़िला भटके अब कहाँ कहाँ यारो
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हर तरफ़ इक मुहीब सन्नाटा
दिल धड़कता तो है मगर ख़ामोश
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शम्अ के मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-नियाज़
अक्सर अपनी आग में चुप चाप जल जाते हैं लोग
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तारीकी में लिपटी हुई पुर-हौल ख़मोशी
इस आलम में क्या नहीं मुमकिन जागते रहना
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सूरज को ये ग़म है कि समुंदर भी है पायाब
या रब मिरे क़ुल्ज़ुम में कोई सैल-ए-रवाँ और
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रह जाए इक निगाह का पर्दा ही दरमियाँ
तहज़ीब के बदन से तो रस्म-ए-क़बा उठी
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